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________________ [२६४ [मूलाचारे प्रतीयन्ते तेन न मषा, अर्थः सन्दिग्धो न प्रतीयते तेन न सत्या । यथा शब्दमात्र प्रतीयते तेन न मुषा, अक्षराणामर्थस्य चाप्रतीतेन सत्येति । अनेन न्यायेन नवप्रकारा असत्यमषाभाषा व्याख्यातेति ॥३१६॥ पुनरपि यद्वचनं सत्यमुच्यते तदर्थमाह सावज्जजोग्गवयणं वज्जंतोऽवज्जभीर गुणकंखी। सावज्जवज्जवयणं णिच्चं भासेज्ज भासंतो॥३१७॥ यदि मौनं कर्तुं न शक्नोति तत एवं भाषेत--सावा सपापमयोग्यं यकारभकारादियुक्तं वचन वर्जयेत् । अवद्यभीरुः पापभीरुः । गुणाकांक्षी हिंसादिदोषवर्जनपरः । सावधवजं वचनं नित्यं सर्वकालं भाषयन् भाषयेत् । अन्वयव्यतिरेकेण वचनमेतत् । नैतस्य पौनरुत्क्यं द्रव्याथिकपर्यायाथिकशिष्यानुग्रहपरादिति ॥३१७।। अशनसमितिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह अक्षर संदिग्ध प्रतीति में आ रहे हैं इसलिए असत्य भी नहीं है और अर्थ संदिग्ध होने से स्पष्ट प्रतीति में नहीं आता है इसलिए सत्य भी नहीं है। अर्थात् शब्द मात्र तो प्रतीति में आ रहे हैं इसलिए असत्य नहीं है और अक्षरों का अर्थ प्रतीति में नहीं आ रहा है इसलिए सत्य भी नहीं है। इस न्याय से नव प्रकार की असत्यमृषा भाषा का व्याख्यान किया गया है। भाषासमिति में इन वचनों को बोलना वर्जित नहीं है । पुनरपि जो वचन सत्य कहे जाते हैं उन्हीं को बताते हैं गाथार्थ-पापभीरु और गुणाकांक्षी मुनि सावध और अयोग्य वचन को छोड़ता हुआ तथा नित्य ही पाप योग से वर्जित वचन बोलता हुआ वर्तता है ॥३१७॥ प्राचारवृत्ति-यदि मुनि मौन नहीं कर सकता है तो इस प्रकार से बोले-पाप सहित वचन और यकार मकार आदि सहित अर्थात् 'रे', 'तू' आदि शब्द अथवा गालीगलौज आदि अभद्र शब्द से युक्त वचन नहीं बोले । पापभीरु और गुणों का आकांक्षी अर्थात् हिंसादि दोषों के वर्जन में तत्पर होता हुआ मुनि यदि बोले तो हमेशा ही उपर्युक्त दोष रहित सत्य वचन बोले । यह अन्वय और व्यतिरेक रूप से कहा गया है इसलिए इसमें पुनरुक्त दोष नहीं आता है क्योंकि द्रव्याथिकनयापेक्षी और पर्यायाथिकनयापेक्षी शिष्यों के प्रति अनुग्रह करना ही गुरुओं का कार्य है। विशेष—पहले जो दश प्रकार के सत्य और नव प्रकार के अनुभय वचन बताये और उनके बोलने का आदेश दिया वह तो अन्वय कथन है अर्थात् विधिरूप कथन है और यहाँ पर सावद्य और अयोग्य वचनों का त्याग के लिए कहा गया व्यतिरेक अर्थात् निषेधरूप कथन है । द्रव्याथिक नयापेक्षी शिष्य एक प्रकार के वचन से ही दूसरे प्रकार का बोध कर लेते हैं किन्तु पर्यायार्थिक नयापेक्षी शिष्यों को विस्तारपूर्वक कहना पड़ता है। अब अशनसमिति का स्वरूप प्रतिपादन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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