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________________ २५२] [मूलाचारे स्तन्नोइन्द्रियप्रणिधानं। तदेतदिन्द्रियप्रणिधानं नोइन्द्रियप्रणिधानं चाप्रशस्तमयुक्तं वर्जयेत् वर्जयितव्यमिति ॥३०॥ समितिगुप्तिविषयः प्रणिधानयोगोऽष्टविध आचारोक्त' इति प्रतिपादितं ततः काः समितयो गुप्तयश्चेत्याशंकायामाह णिक्खेवणं च गहणं इरियाभासेसणा य समिदीयो। पदिठावणियं च तहा उच्चारादीणि पंचविहा ॥३०१॥ निक्षेपणं निक्षेपः पुस्तिकाकुण्डिकादिव्यवस्थापनं । तेषामेव ग्रहणमादानं समीक्ष्य, सैषादाननिक्षपणसमितिः । धर्माथिनो यत्नपरस्य गमनमीर्यासमितिः । सावधरहितभाषणं भाषासमितिः कृतकारितानुमतरहिताहारादानमशनसमितिः । समितिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । उच्चारादीनां मूत्रपुरीषादीनां प्रासुकप्रदेशे प्रतिष्ठापनं त्यागः प्रतिष्ठापनासमितिः । इत्येवं पंचविधा समितिरिति ॥३०१।। तत्र तावदीर्यासमितिस्वरूपप्रपंचार्थमाह कषायों के विषय में जो मन का प्रणिधान अर्थात् व्यापार है वह नोइन्द्रिय-प्रणिधान है तथा जो हात्रा आदि नोकषायों में मन का व्यापार है वह भी नोइन्द्रिय-प्रणिधान है। पूर्वकथित इन्द्रिय-प्रणिधान और यहाँ पर कथित नोइन्द्रिय-प्रणिधान, ये दोनों ही अप्रशस्त होने से अयूक्त हैं इसलिए इनका त्याग कर देना चाहिए। तात्पर्य यह हआ कि पाँचों इन्द्रियों के विषयों में जो राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति होती है और क्रोधादिक विषयों में जो मन की प्रवृत्ति होती है यह सब अशुभ है इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। समिति और गुप्ति के विषय में जो प्रणिधानयोग-शुभ परिणाम की प्रवत्ति है वह आठ प्रकार का आचार कहा गया है ऐसा आपने प्रतिपादन किया। पुनः, वे समितियाँ और गुप्तियाँ कौन-कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-ईर्या, भाषा, एषणा तथा निक्षेपणग्रहण और मलमूत्रादि का प्रतिष्ठापन ये समितियाँ पाँच प्रकार की हैं ।।३०१॥ प्राचारवत्ति यत्ल में तत्पर हुए धर्मार्थी अथवा धर्म की इच्छा रखते हुए मुनि का गमन ईर्यासमिति है। सावद्यरहित वचन बोलना भाषा समिति है। कृत, कारित अनुमोदना से रहित आहार को ग्रहण करना एषणा समिति है। पुस्तक, कमण्डलु आदि का देख-शोधकर रखना तथा उन्हें ग्रहण करना आदान-निक्षेपण समिति है। मलमूत्र का प्रासुक स्थान में प्रतिष्ठापन-त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति है। इस तरह पाँच प्रकार की समिति होती हैं। ___अब पहले ईर्या समिति के स्वरूप को विस्तार से कहते हैं १क आचार उक्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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