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________________ पंचाचाराधिकारः] [२०६ इह लोकाकाङ्क्षां परलोकाकांक्षां च प्रतिपादयन्नाह बलदेवचक्कवट्टीसेट्ठीरायत्तणादिअहिलासो। इहपरलोगे देवत्तपत्थणा दंसणाभिघादी सो ॥२५॥ बलदेवचक्रवर्तिश्रेष्ठ्यादीनां राज्याभिलाष इहलोके यो भवति सेहलोकाकाङ्क्षा। परलोके च स्वर्गादौ देवत्वप्रार्थना यस्य स्यात् दर्शनाभिघाती सः । इहलोके षट्खण्डाधिपतित्वं, बलदेवत्वं, राजश्रेष्ठित्वं परलोके इन्द्रत्वं, सामान्यदेवत्वं, महद्धिकत्वं, 'स्वस्वरूपत्वमित्येवमादि प्रार्थयन् मिथ्यादृष्टिर्भवति, निदानशल्यत्वाकांक्षयेति ॥२५॥ कुधर्मकांक्षास्वरूपमाह रत्तवडचरगतावसपरिहत्तादीणमण्णतित्थीणं । धम्मलि य अहिलासो कुधम्मकंखा हवदि एसा ॥२५॥ रक्तपट-चरक-तापस-परिव्राजकादीनामन्यतीथिकानां धर्मविषये योऽभिलाषः धर्मकांक्षा से पूज्य है इसको मैं भी धारण कर लूँ ऐसी आकांक्षा होना कुधर्माकांक्षा है। इन तीनों कांक्षाओं को जो नहीं करता है वह जीव दर्शनविशुद्धि प्राप्त कर लेता है। क्योंकि यदि कांक्षा के बिना भी सभी कुछ मिल सकता है तो क्यों कर कांक्षा करना । तथा काक्षावान् मनुष्य सभी के द्वारा निदित भी होता है इसलिए कांक्षा नहीं करना चाहिए। अब इह लोकाकांक्षा और परलोकाकांक्षा को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं गाथार्थ—जिसके इस लोक में बलदेव, चक्रवर्ती, सेठ, राजा आदि होने की अभिलाषा होती है, और परलोक में देवपने की चाहना होती है वह सम्यग्दर्शन का घाती है। ॥२५०॥ प्राचारवत्ति—जो इस लोक में बलदेव, चक्रवर्ती आदि के राज्य की अभिलाषा करता है, श्रेष्ठी पद चाहता है उसके वह इह-लोकाकांक्षा है। जिसके परलोक में-स्वर्ग आदि में देवपने की प्रार्थना होती वह परलोकाकांक्षा करता है । ये दोनों आकांक्षाएँ सम्यक्त्व का घात करती हैं । अर्थात् इस लोक में मुझे षट्खण्ड का साम्राज्य, बलदेव पद, राजश्रेष्ठी पद मिले और परलोक में मुझे इन्द्रपद, सामान्य देवपद या महान् ऋद्धिधारी देवपद तथा सुन्दर रूप मिले इत्यादि रूप से प्रार्थना करता हुआ जीव मिध्यादृष्टि हो जाता है; क्योंकि कांक्षा निदानशल्य रूप है ऐसा समझना। अब कुधर्माकांक्षा का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-रक्त पट, चरक, तापसी और परिव्राजक आदि के तथा अन्य सम्प्रदायवालों के धर्म में जो अभिलाषा है वह कुधर्माकांक्षा है ।।२५१॥ प्राचारवृत्ति-रक्तवस्त्रवाले साधुओं के चार भेद हैं-वैभाषिक, सौत्रांतिक, १ क स्वरूप । २ क परिभत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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