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________________ १००] [मूलाचार जीवितस्य । जइ मज्झं-यदि मम । एवं-एतत् । पच्चक्खाणं-प्रत्याख्यानं । णित्थिपणे निस्तीर्णे समाप्ति गते । पारणा- आहारग्रहणं । हुज्ज-भवेत् । एतस्मिन् देशकाले सोपसर्गेऽभिप्रेते वा मध्ये यदि जीवितव्यं नास्ति चतुर्विधाहारस्यैतत्प्रत्याख्यानं मम भवेत् तस्मिस्तु देशकाले निस्तीणे जीवितव्यस्योपक्रमे च सति पारणा भवेदिति सन्देहावस्थायामेतत् । निश्चयावस्थायां तु पुनरेतदित्याह सव्वं आहारविहिं पच्चक्खामि पाणयं वज्ज । उहिं च वोसरामि य दुविहं तिविहेण सावज्जं ॥११३॥ सव्वं-सर्वं निरवशेष । आहारविहि-भोजनविधि । पञ्चक्वामि-प्रत्याख्यामि। पाणयं वज्ज-पानकं वर्जयित्वा । उहि च-उपधिं च । वोसरामि य–व्युत्सृजामि च । दुविहं-द्विविधं बाह्याभ्यन्तरलक्षणं । तिविहेण-त्रिविधन मनोवचनकायेन । सावज्जं-सावा पापकारण। पानकं वर्जयित्वा सर्वमाहारविधि प्रत्याख्यामि, बाह्याभ्यन्तरोपधि च व्युत्सृजामि द्विविधं त्रिविधेन सावधं च यदिति ॥११३॥ उत्तमार्थार्थमाह जो कोइ मज्झ उवही सब्भंतरवाहिरो य हवे। पाहारं च सरीरं जावज्जोवा य वोसरे ॥११४॥ जो कोइ-यः कश्चित् । मज्झ उवही-ममोपधिः परिग्रहः । सम्भंतरवाहिरो य-साभ्यन्तरवाह्यश्च । हवे-भवत् । तं सर्व। आहारं च-चतुर्विकल्पभोजनं शरीरं च । जावजीवा य-जीवं जीवितव्यमनतिक्रम्य यावज्जीवं यावच्छरीरे मम जीव इत्यर्थः । वोसरे-व्यत्सजे। यः कश्चित् मम सबाहाम्यन्तरो-. पधिर्भवेत् तं आहारं शरीरं च यावज्जीवं व्युत्सृजेदित्यर्थः ॥११४॥ आगमस्य माहात्म्यं दृष्ट्वोत्पन्नहर्षो नमस्कारमाह मेरे यह चतुर्विध आहार का त्याग है और यदि उस देश काल में उपसर्ग आदि का निवारण हो जाने पर जीवन का अस्तित्व रहता है तो मैं आहार ग्रहण करूँगा । जीवित रहने का जब सन्देह रहता है तब साधु इस प्रकार से प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं। और जब मरण होने का निश्चय हो जाता है तो पुनः क्या करना चाहिए? गाथार्थ-पेय पदार्थ को छोड़कर सम्पूर्ण आहारविधि का मैं त्याग करता हूँ और मनवचन-कायपूर्वक दोनों प्रकार की उपाधि का भी त्याग करता हूँ ॥११३॥ टीका-अर्थ सरल है। अब उत्तमार्थ विधि को कहते हैं गाथार्थ-जो कुछ भी मेरा अभ्यन्तर और बाह्य परिग्रह है उसको तथा आहार और शरीर को मैं जीवनभर के लिए छोड़ता हूँ ॥११४॥ टीका-अर्थ सरल है। अब आगम के माहात्म्य को देखकर हर्षित चित्त होते हुए नमस्कार करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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