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________________ महत्पत्याल्यानसंस्तरस्तवाधिकारः] आत्मसंस्कारकालं नीत्वा संन्यासालोचनार्थमाचार्यः प्राह जिंदामि णिदणिज्ज गरहामि य जं च मे गरहणीयं । पालोचेमि य सव्व सम्भंतरबाहिरं उहि ॥१५॥ णिवामि-निन्दामि आत्मन्याविष्करोमि। णिणिज्वं-निन्दनीयं आत्माविष्करणयोग्यम् । मिय-गहें च आचार्यादीनामाविष्करोमि प्रकटयामि । जंच यच्च । मे-मम । गरहनीयं-गईणीयं परप्रकाशयोग्यं । आलोचेमि य-आलोचयामि चापनयामि चारित्राचारालोचनापूर्वकं गर्हणं वा करोमि। सव्यं-रावं निरदशेषं । सम्भंतरवाहिरं-साभ्यन्तरवाह्यं । उहि-उपधि च परिग्रहं च । यन्निदनीयं तन्नि अस्तिकाय तथा पदार्थों में श्रद्धान का अभाव या विपरीत श्रद्धान आदि का होना आसादना है तथा षट्काय जीवों की हिंसादि का हो जाना ही आसादना है ऐसा समझना। आत्मसंस्कार काल से संन्यास काल तक की आलोचना के लिए आचार्य कहते हैं गाथार्थ-निन्दा करने योग्य की मैं निन्दा करता हूँ और मेरे जो गर्दा करने योग्य दोष हैं उनकी गर्दा करता हूँ, और मैं वाह्य तथा अश्यन्तर परिग्रह सहित सम्पूर्ण उपधि की आलोचना करता हूँ॥५५॥ प्राचावत्ति-जो अपने में स्वयं हीप्रकट करनेयोग्यदोष हैं उनकीस्वयंनिन्दाकरता है, जो पर के समक्ष कहने योग्य दोष हैं उनको मैं आचार्य आदि के सामने प्रकट करते हुए अपनी गर्दा करता हूँ और मैं चारित्राचार की आलोचनापूर्वक सम्पूर्ण बाह्य अभ्यन्तर उपधि की आलोचना करता हूँ अर्थात् सम्पूर्ण उपधि को अपने से दूर करता हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि जो उपधि और परिग्रह निन्दा करने योग्य हैं उनकी मैं निन्दा करता हूँ, जो गर्दा करने योग्य हैं भावार्थ-किसी उत्तम सरस भोज्य पदार्थ के देखने से अथवा पूर्व में लिये गये भोजन का स्मरण आने से, यद्वा पेट के खाली हो जाने से और असातावेदनीय के उदय और उदीरणा से या और भी अनेक कारणों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। भय संज्ञा का स्वरूपअइभीमदसणेण य तस्सुवजोएण ओमसत्तीए। भयकम्मुवीरमाए भयसन्ना मायदे चहि ॥२२॥ अर्थ-अत्यन्त भयंकर पदार्य के देखने से, पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरण से, यद्वा अधिक निर्बल होने पर अन्तरंग में भयकर्म की उदय उदीरवा होने पर इन चार कारणों से भयसंज्ञा होती है। मैथुनसंज्ञा का स्वरूपपणिवरसभोयणेण य तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए। वेवस्सुवीरणए मेहुणसण्णा हु जायवे चहि ॥२३॥ अर्थ-स्वादिष्ट और गरिष्ठ रस युक्त भोजन करने से, उधर उपयोग लगाने से तथा कुशीन मादि सेवन करने से और वेदकर्म की उदय उदीरणा के होने से-इन चार कारणों से मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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