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________________ ३१२ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१० अभिव्यक्ति करनेवाले सम्यग्दर्शन आदि सादि हैं। और अभव्यत्वकी व्यक्ति अनादि है, क्योंकि उसके अभिव्यंजक मिथ्यादर्शन आदि अनादि हैं । जीव अनादिकालसे मिथ्यादृष्टि है, परन्तु काललब्धि आदिके मिलनेपर जब उसमें सम्यग्दर्शन आदिकी उत्पत्ति हो जाती है, तब उसकी भव्यत्व शक्तिकी अभिव्यक्ति होती है। उसके पहले भव्यत्व शक्ति अव्यक्तरूपमें रहती है । अतः भव्यत्व शक्तिकी व्यक्ति सादि है। किन्तु जो जीव अभव्य है, वह अनादिसे अभव्य है, और सदा अभव्य रहेगा। इसलिए अभव्यत्व शक्तिकी अभिव्यक्ति अनादि है। भव्य जीवोंमें ऐसे जीवोंकी भी एक श्रेणी है, जिनमें सम्यग्दर्शनादिके उत्पन्न होनेकी योग्यता तो है, परन्तु सम्यग्दर्शनादिकी उत्पत्ति कभी नहीं होगी। ऐसे जीवोंको दूरानदूर भव्य कहते हैं। सधवा, पतिव्रता विधवा और वन्ध्या ये तीन प्रकारकी स्त्रियाँ क्रमशः भव्य, दूरानदूरभव्य और अभव्य जीवोंके उदाहरण हैं। सधवा स्त्रीमें सन्तान उत्पन्न करनेकी योग्यता है, और उसके सन्तानकी उत्पत्ति होती भी है। इसी प्रकार भव्य जीवमें सम्यग्दर्शनादिको उत्पन्न करनेकी योग्यता है, और निमित्त मिलनेपर सम्यग्दर्शनादिको उत्पत्ति होती भी है। पतिव्रता विधवा स्त्रीमें सन्तानको उत्पन्न करनेकी योग्यता तो है, किन्तु उसके पतिव्रता होनेसे सन्तान उत्पन्न करनेका निमित्त कभी नहीं मिल सकता है। इसी प्रकार दूरानदूर भव्य जीवोंमें सम्यग्दर्शनादिको उत्पन्न करनेकी योग्यता तो है, परन्तु सम्यग्दर्शनादिकी उत्पत्तिका निमित्त कभी नहीं मिलता है। इसलिए दूरानदूर भव्य जीव भव्य होते हुए भी अभव्यके समान हैं। वन्ध्या स्त्रीसे कभी भी सन्तानकी उत्पत्ति नहीं होती है। उसमें सन्तानको उत्पन्न करनेकी योग्यताका सर्वथा अभाव है। इसी प्रकार अभव्य जीवमें भी सम्यग्दर्शनादिकी कभी भी उत्पत्ति नहीं होती है। उसमें सम्यग्दर्शनादिको उत्पन्न करनेकी योग्यताका सर्वथा अभाव है। अतः भव्यत्व शक्तिकी व्यक्ति सादि है, और अभव्यत्व शक्तिकी व्यक्ति अनादि है। शक्ति द्रव्यकी अपेक्षासे ही अनादि है, पर्यायकी उपेक्षासे नहीं। पर्यायकी अपेक्षासे तो शक्ति सादि है । अतः शक्ति और अभिव्यक्ति दोनों कथंचित् अनादि हैं। अकलंकदेवने शुद्धि और अशुद्धिका एक अन्य अर्थ भी किया है। सम्यग्दर्शनादि परिणामका नाम शुद्धि है, और मिथ्यादर्शनादि परिणामका नाम अशुद्धि है। भव्य जीवमें ही इन दोनों शक्तियोंकी अभिव्यक्ति कथंचित् सादि होती है, और कथंचित् अनादि होती है। सम्यग्दर्शनादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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