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________________ २३१ कारिका-६०] तत्त्वदीपिका खा लेना चाहिए। जिसने यह व्रत लिया कि मैं आज दधि ही खाऊँगा, वह उस दिन दुग्ध नहीं खाता है । यदि दुग्धमें भी दधिका सद्भाव रहता तो उसको दुग्ध भो खालेना चाहिए । और जिसने ऐसा व्रत लिया कि मैं आज गोरस नही खाऊँगा, वह उस दिन न दुग्ध खाता है, और न दधि खाताहै । यदि दुग्ध और दधिमें गोरसका अन्वय न रहता तो उसको दुग्ध और दधि दोनों खालेना चाहिए। उक्त दृष्टान्तसे यह सिद्ध होता है कि दुग्ध पर्यायका नाश होने पर दधि पर्यायकी उत्पत्ति होती है। तथा दुग्ध और दधि पर्यायें पृथक्-पृथक् हैं, किन्तु गोरसका अन्वय दोनोंमें पाया जाता है । अतः तत्त्व उत्पाद आदि तीम रूप है । यहाँ यह शंका हो सकती है कि वस्तुके त्रयात्मक होने पर उसमें अनन्तात्मकत्व कैसे सिद्ध होगा। उक्त शंका निर्मूल है। क्योंकि वस्तुके त्रयात्मक होने पर भी अनन्तात्मक होनेमें कोई विरोध नहीं है । उत्पाद आदि तीन धर्मों से प्रत्येक धर्म भी अनन्तरूप है । एक वस्तुका उत्पाद उत्पन्न होने वाली अनन्त वस्तुओंके उत्पादसे भिन्न होनेके कारण अनन्त रूप है। एक वस्तुका विनाश नष्ट होने वाली अनन्त वस्तुओंके नाशसे भिन्न होनेके कारण अनन्तरूप है। तथा एक वस्तुका ध्रौव्यत्व अनन्त वस्तुओंके ध्रौव्यत्वसे भिन्न होनेके कारण अनन्तरूप है । वस्तुके त्रयात्मक या अनन्तधर्मात्मक होनेपर भी उसके नित्यानित्यात्मक होने में कोई विरोध नहीं है। क्योंकि ध्रौव्यत्वकी अपेक्षासे वस्तु नित्य है, तथा उत्पाद और विनाशकी अपेक्षासे अनित्य है। इसलिए यह कहना ठीक ही है कि वस्तु कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है, कथंचित् उभयरूप है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् नित्य और अवक्तव्य है, कथंचित् अनित्य और अवक्तव्य है, तथा कथंचित् नित्य, अनित्य और अवक्तव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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