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________________ २१६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-३ है। क्योंकि जिस प्रकारका कालभेद शब्द और शब्दके विषयमें पाया जाता है, वसा कालभेद बौद्धोंके अनुसार प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षके विषयमें भी पाया जाता है। प्रत्यक्षके समय उसका विषय नष्ट हो जाता है, फिर भी प्रत्यक्षके द्वारा उसका ज्ञान माना गया है। यही बात शब्दज्ञानके विषयमें भी है। जिस प्रकार संकेतकालमें गृहीत अर्थके व्यवहारकालमें न रहने पर भी शब्दके द्वारा तत्सदृश अर्थका ज्ञान होता है । उसी प्रकार शब्दके द्वारा अर्थको जानकर प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषको भी किसी प्रकारका विसंवाद नहीं देखा जाता है। बौद्ध पृथक्-पृथक् दो तत्त्वोंको मानते हैं-स्वलक्षण और सामान्य । स्वलक्षण दर्शनका विषय होता है, और सामान्य विकल्पका विषय होता है। स्वलक्षण दृष्ट है, और सामान्य अदृष्ट है । दृष्ट स्वलक्षणमें निर्णय या विकल्प संभव नहीं है। और अदृष्ट सामान्यमें निर्णयकी कल्पना की जाती है, जोकि प्रधान, ईश्वर आदि विकल्पोंके समान है। अतः जब तक दर्शन और विकल्पका विषय सामान्य-विशेषात्मक एक तत्त्व न माना जायगा, तब तक किसी भी इष्ट तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती है। इस प्रकार तत्त्वको अवक्तव्य माननेवाले बौद्धोंके यहाँ सम्पूर्ण प्रमाणों और प्रमेयोंका अभाव होनेसे शून्यकान्तकी ही प्राप्ति होती है। क्षणिकैकान्त पक्षमें कृतनाश और अकृताभ्यागमका प्रसंग दिखलाते हुए आचार्य कहते हैं हिनस्त्यनभिसंधात न हिनस्त्यभिसंधिमत । बध्यते तद्वयापेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥५१।। हिंसा करनेका जिसका अभिप्राय नहीं है, वह हिंसा करता है, और जिसका हिंसा करनेका अभिप्राय है, वह हिंसा नहीं करता है। जिसने हिंसाका कोई अभिप्राय नहीं किया, और न हिंसा ही की, वह चित्त बन्धनको प्राप्त होता है। और जिसका बन्ध हुआ, उसकी मुक्ति नहीं होती हैं, किन्तु दूसरे की ही मुक्ति होती है । बौद्धमतमें क्षण क्षणमें प्रत्येक पदार्थका निरन्वय विनाश होता रहता है । एक प्राणीने दूसरे प्राणीको मार डाला। यहाँ यह विचारणीय है कि हिंसा करनेवाला कौन है। मोहनने सोहनको मार डाला तो हिंसाका दोष मोहनको लगेगा या नहीं। पहले मोहनने सोहनकी हिंसा करनेका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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