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________________ १४६ आप्तमीमांसा [ परिच्छेद-१ करना ही सप्तभंगी है। इसीलिए सप्तभंगीके लक्षणमें 'अविरोधेन' यह विशेषण दिया गया है। इसी प्रकार एक वस्तुमें विधिकी कल्पना करना और दूसरी वस्तुमें प्रतिषेधकी कल्पना करना भी सप्तभंगी नहीं है। किन्तु जहाँ एक ही वस्तुमें विधि और प्रतिषेधकी कल्पना की जाती है, वहीं सप्तभंगी होती है। इसीलिए सप्तभंगीके लक्षणमें ‘एकत्र वस्तुनि' यह विशेषण दिया है। यह शंका भी ठीक नहीं है कि एक ही वस्तुमें अनन्तधर्म पाये जाते हैं, इसलिए अनन्तधर्मोकी अपेक्षासे अनन्तभंगी मानना पड़ेगी। क्योंकि प्रत्येक धर्मकी अपेक्षासे एक सप्तभंगी होती है, इसलिए अनन्त सप्तभंगियाँ मानना तो उचित है किन्तु अनन्तभंगी मानना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। ___ वस्तुमें सत्त्वधर्म मानना आवश्यक है, क्योंकि सत्त्वके अभावमें वस्तुमें वस्तुत्व ही नहीं बन सकता है। द्रव्यका लक्षण ही 'सत्' है, ‘सद् द्रव्यलक्षणम्' ऐसा आगम भी है। सत्त्वकी तरह असत्त्व भी वस्तुका धर्म है, क्योंकि वस्तु कथंचित् सत् है, सर्वथा सत् नहीं है। यदि वस्तु सर्वथा सत् हो, तो जिस प्रकार वह स्वद्रव्य आदिकी अपेक्षासे सत् है, उसी प्रकार पर द्रव्य आदिकी अपेक्षासे भी सत् होगी। और ऐसा मानने में सब वस्तुएँ सब रूप हो जायगी। इसी प्रकार उभय, अवक्तव्य आदि भी वस्तुके धर्म हैं। क्योंकि उस प्रकारका विकल्प और शब्द व्यवहार देखा जाता है, उस रूप वस्तुकी प्रतीति, प्रवृत्ति तथा प्राप्ति भी देखी जाती है। इस प्रकारका जो व्यवहार देखा जाता है वह ऐसा नहीं है कि विना विषयके ही हो जाता हो । यदि ऐसा हो तो प्रत्यक्षादिके द्वारा होनेवाले व्यवहारको भी निविषय मानना पड़ेगा तथा किसी इष्ट तत्त्वकी व्यवस्था भी नहीं हो सकेगी। शंका-जिस प्रकार प्रथम और द्वितीय धर्म पृथक् हैं तथा प्रथम और द्वितीय धर्मको मिलाकर तृतीयधर्म भी एक पृथक् धर्म है, उसी प्रकार प्रथम और तृतीय धर्मको मिलाकर तथा द्वितीय और तृतीयधर्मको मिलाकर सात धर्मोसे अतिरिक्त दो धर्म और भी सिद्ध होंगे। उत्तर–प्रथम और तृतीय धर्मको मिलाकर एक पृथक् धर्म नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रथम धर्म और तृतीय धर्मगत सत्त्व भिन्न-भिन्न नहीं है । जो सत्त्व प्रथम धर्मगत है, वही सत्त्व तृतीय धर्मगत है। प्रथम धर्मगत सत्त्वसे तृतीय धर्मगत सत्त्व भिन्न नहीं है। इसी प्रकार द्वितीय धर्मगत असत्त्व और तृतीय धर्मगत असत्त्व भी भिन्न-भिन्न नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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