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________________ कारिका-१४] तत्त्वदीपिका १४३ किन्तु किसी अपेक्षासे वस्तु सत् है, और किसी अपेक्षासे वही वस्तु असत् है। ऐसा नहीं है कि एक वस्तु सत् है, और दूसरी असत् है। किसी अपेक्षासे जो वस्तु सत् है, वही वस्तु अन्य अपेक्षासे असत् भी है। यही बात वस्तुके उभयात्मक तथा अवाच्य होने में है । वस्तु सर्वथा न तो उभयात्मक ही है, और न अवाच्य ही। किन्तु किसी अपेक्षासे वस्तु उभयात्मक है, और किसी अपेक्षासे अवाच्य है। तात्पर्य यह है कि जैनशासनमें सर्वत्र नयकी दृष्टिसे विचार किया गया है। 'वक्तुरभिप्रायो नयः' । वक्ताके अभिप्रायका नाम नय है। वक्ता जिस अभिप्रायसे किसी वस्तुको कहना चाहता है, उस वस्तुका उसी दृष्टिसे विचार किया जाता है। यदि वक्ताके अभिप्रायके अनुसार विचार न कर, सदा एक रूपसे ही किसी बात पर विचार किया जायगा, तो बड़ी अव्यवस्था हो जायगी। सैन्धवका अर्थ है घोड़ा और नमक । कोई पुरुष भोजन करते समय दूसरे पुरुषसे कहता है-'सैन्धवमानय', सैन्धव लाओ । यदि दूसरा पुरुष कहने वालेके अभिप्रायको न समझकर, उस समय घोड़ा लाकर खड़ा कर दे, तो वह हँसीका पात्र होगा। अतः प्रत्येक बात पर विचार करते समय वक्ताके अभिप्राय पर ध्यान देना आवश्यक है। घट सत् भी है, और असत् भी। द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिसे घटरूपसे परिणत जो मिट्टी अथवा पुद्गल है, उसका कभी नाश नहीं होता है। अतः इस नयकी दृष्टिसे घट सत् है । पर्यायार्थिक नयकी दृष्टिसे घट पर्यायका नाश होनेके कारण घट असत् है। अथवा घट अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे सत् है, और परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे असत् है। घट घटरूपसे है, पटरूपसे नहीं है । अपने क्षेत्र और कालमें है, पटके क्षेत्र और कालमें नहीं है । अतः घट सत् भी है, और असत् भी । जब दोनों नयोंकी दृष्टिसे क्रमशः विचार किया जाता है, तब घट उभयात्मक सिद्ध होता है। और दोनों नयोंकी दष्टिसे युगपत् विचार करने पर घट अवाच्य भी हो जाता है। यही व्यवस्था प्रत्येक वस्तुके विषयमें समझना चाहिये । इस प्रकार जैनशासनमें कोई भी वस्तु सर्वथा एकरूप नहीं है। और यही कारण है कि जैनशासनमें किसी प्रमाणसे बाधा नहीं आती है। प्रत्येक वस्तुमें अनन्त धर्म होते हैं, और प्रत्येक धर्मका कथन अपने विरोधो धर्मकी अपेक्षासे सात प्रकारसे किया जाता है। प्रत्येक धर्मका सात प्रकारसे कथन करनेकी शैलीका नाम ही सप्तभंगी है। कहा भी है प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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