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________________ कारिका-७] . तत्त्वदीपिका धूमवत्वात् ।' 'इस पर्वतमें वह्नि है, धूम होनेसे ।' इस अनुमानमें धूम कार्य हेतु है। धूम हेतुका समर्थन इस प्रकार होगा। वह्निके होनेपर ही धूम होता है। अन्य कारणोंके होनेपर भी वह्निके अभावमें धूम कभी नहीं होता। यह कार्य हेतुका समर्थन है । 'अत्र घटो नास्ति अनुपलब्धेः' । 'यहाँ घट नहीं है, अनुपलब्ध होनेसे ।' इस अनुमानमें घटका अभाव साध्यहै, और अनुपलब्धि हेतु है । अनुपलब्धि हेतुका समर्थन इस प्रकार होगा। यदि यहाँ घट होता तो उसकी उपलब्धि नियमसे होती। क्योंकि घटका स्वभाव उपलब्ध होनेका है, तथा उपलब्धिके कारण चक्ष, प्रकाश आदिका भी सद्भाव है। अनुपलब्धिसे उस वस्तुका अभाव नहीं किया जा सकता जिसका स्वभाव उपलब्ध होनेका नहीं है। जैसे पिशाच या परमाणुका अभाव नहीं किया जा सकता है। उपलब्धिके योग्य होनेपर भी घटकी उपलब्धि नहीं हो रही है, अतः घटका अभाव है । यह अनुपलब्धि हेतुका समर्थन है। बौद्ध हेतुका प्रयोग करनेके बाद उसका समर्थन भी करते हैं, फिर भी प्रतिज्ञाके प्रयोगको अनर्थक बतलाते हैं, यह कहाँ तक उचित है। यदि हेतुके प्रयोगमात्रसे ही साध्यका ज्ञान हो जाता है, तो प्रतिज्ञाके प्रयोगकी तरह हेतुका समर्थन व्यर्थ है। यदि कहा जाय कि असिद्ध आदि दोषोंके परिहारके लिए हेतुका समर्थन आवश्यक है, तो फिर समर्थनको ही अनुमानका अवयव मानना चाहिए। तब हेतुके प्रयोगकी कोई आवश्यकता नहीं है। यदि यह माना जाय कि हेतुके अभावमें किसका समर्थन होगा, तो प्रतिज्ञाके विषयमें भी यही बात है। अर्थात् प्रतिज्ञाके अभावमें हेतु कहाँ रहेगा। यदि प्रतिज्ञाके द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ हेतुके कहने मात्रसे ही समझमें आ जाता है, तो हेतु भी समर्थनसे ही ज्ञात हो जायगा। यदि मन्दमति वालोंको स्पष्ट बोध करानेके लिए हेतुका प्रयोग आवश्यक है, तो प्रतिज्ञाके प्रयोगमें भी यही तर्क है । अतः हेतुके प्रयोगकी तरह प्रतिज्ञाका प्रयोग भी सार्थक है। बौद्ध कहते हैं कि समर्थनको विपक्षव्यावृत्तिस्वरूप होनेसे हेतुके तीन रूपोंमेंसे वह एक रूप है, हेतुसे पृथक् नहीं है। यदि समर्थनको नहीं कहेंगे तो असाधनाङ्ग वचन ( साधनके अङ्गको नहीं कहना ) नामका निग्रह स्थान होगा। किन्तु क्या यही तर्क प्रतिज्ञाके प्रयोगमें भी नहीं दिया जा सकता। प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अनुमानके अंग हैं। यदि पाँचमेंसे कमका प्रयोग किया जायगा तो न्यून नामका निग्रहस्थान होगा। क्योंकि 'हीनमन्यतमेनापि न्यूनम्', पाँच अवयवोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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