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________________ ९६ आप्तमीमांसा [परिच्छेद-१ णोंमें ज्येष्ठ और गरिष्ट है, क्योंकि प्रत्यक्षके अभावमें अन्य प्रमाणोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । तथा समारोपका निराकरण भी जैसा प्रत्यक्षसे होता है वैसा अन्य प्रमाणोंसे नहीं होता है। प्रत्यक्ष इस कारण भी गरिष्ठ है कि वह अपने विषयमें सामान्य और विशेषके विधिरूप अन्वयमें तथा एकान्तके प्रतिषेधरूप व्यतिरेकमें स्वभावभेद बतलाता है। अर्थात् वस्तुमें सामान्य और विशेषका अन्वय तथा एकान्तका व्यतिरेक ये दोनों एक नहीं हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न हैं, इस बातका ज्ञान प्रत्यक्षसे ही होता है । अनुमान न तो प्रत्यक्षसे ज्येष्ठ है और न गरिष्ठ । प्रत्यक्षके अभावमें अनुमानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतः ज्येष्ठ और गरिष्ठ प्रत्यक्षसे जो बात सिद्ध है उसमें अनुमान आदि प्रमाणोंकी कोई आवश्यकता नहीं है। शंका-जब अर्हन्त ही आप्त हैं और उनका इष्ट तत्त्व प्रत्यक्षसे अबाधित है, तो यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि कपिलादि आप्त नहीं हैं, तथा उनका इष्ट सर्वथैकान्त प्रत्यक्षसे बाधित है। फिर कपिलादिमें आप्तत्वके अभावको बतलानेकी तथा सर्वथैकान्तका निराकरण करनेकी क्या आवश्यकता है। ___ उत्तर--अनेकान्तकी उपलब्धि और एकान्तकी अनुपलब्धि ये दोनों एक हैं । अर्थात् अनेकान्तकी उपलब्धि ही एकान्तकी अनुपलब्धि है, और एकान्तकी अनुपलब्धि ही अनेकान्तकी उपलब्धि है, इस बातको बतलानेके लिये दोनों बातोंको कहा है। इसी बातको दूसरे प्रकारसे भी कह सकते हैं कि किसी बातकी सिद्धिके लिए अन्वय और व्यतिरेक दोनोंका कथन असंगत नहीं है । अर्हन्त ही आप्त हैं और उनका इष्ट तत्त्व अबाधित है, इस बातकी सिद्धि अन्वय है। कपिलादि आप्त नहीं हैं तथा उनका इष्ट तत्त्व सर्वथैकान्त बाधित है, यह बतलाना व्यतिरेक है। अत: अन्वय और व्यतिरेक दोनोंका कथन धर्मकीर्तिके मतका निराकरण करनेके लिए किया गया है। बौद्धोंके आचार्य धर्मकीतिने कहा है कि अन्वय और व्यतिरेकमेंसे किसी एकके प्रयोग करनेसे ही अर्थका ज्ञान हो जाता है। इसलिए दोनोंका प्रयोग करना तथा पक्ष आदिका कहना निग्रहस्थान है। बौद्धौका मत है कि अन्वय और व्यतिरेकमेंसे किसी एकका ही प्रयोग करना चाहिए। यदि दोनों का प्रयोग किया जाता है तो निग्रहस्थान (पराजयका स्थान) होनेसे वादीकी पराजय होगी। इसीप्रकार अनुमानके पाँच अवयवोंमेंसे हेतु और दृष्टान्तका ही प्रयोग करना चाहिए, प्रतिज्ञा आदिका नहीं। क्योंकि प्रतिज्ञा आदिके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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