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________________ २६) प्रस्तावना सात प्रकृतियों को युगपदुपशान्त करता है । शेष पुरुषवेद की तरह समझना। तथा नपुसकवेदी जीव एक उदयस्थिति को छोडकर युगपत् नपुसकवेद और स्त्रीवेद का उपशमन करता है। क्रमशः प्रारम्भ होने पर स्त्रीवेद अथवा पुरूपवेद से उपशमश्रेणि' को प्रतिपद्यमान जिस स्थान पर नपुसक वेद का उपशमन करता है वहां तक नपुसकवेद से श्रेणि प्रतिपन्न केवल नपुसकवेद को उपशमन करता है । उसके बाद नपुंसक और स्त्री दोनों वेदों का उपशमन करता है । जिस वक्त स्त्रीवेद उपशान्त हो जाता है उस वक्त नसकवेद की केवल एक समय मात्रोदयस्थिति रहती है। उसके पसार होने पर अवेदक होकर सातों प्रकृतियों को युगपदुपशम करता है। उसके बाद पुरूपवेद की उपशमना सनझना । इस प्रकार उपशमनाकरण भावा-१ (सर्वोपशमनाधिकार) का संक्षिप्त विषय परिचय सम्पूर्ण होता है। उपशमनाकरण भाग-२ (देशोपशमनाधिकार) भविष्य में शीघ्र संपादित करने की तमन्ना है ।। प्रस्तुत प्रेमगुणा टीका का संपादन मेरे द्वारा हुआ है उसमें गीतार्थ शिरोमणि, सिद्धांत दिवाकर पूज्यपादाचार्य देव श्रीमद् जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा की प्रबल प्रेरणा व अध्ययन संपादनादि कार्य में सफल मार्गदर्शक, इस टीका के रचयिता, भवोदधितारक, पूज्यपाद गुरुदेव आचार्य प्रवर श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराजा की असीमकृपा से।। जिन शासन में यद्यपि मोक्षमार्गोपयोगी लोक भाषा (Public Ianguago) में बहुत साहित्य छपता है, वह अल्प समय तक ही उपयोगी सिद्ध होता है, परन्तु प्राकृत-संस्कृत भाषा मे लिखा हुआ साहित्य तो चिरकाल तक अमरकृति बन जाता है। आज मुझे अत्यंत हर्प है कि मेरा लगभग ५ सालों का प्रयत्न साकार हो रहा है । शासन के अमुल्य खजाने मे एक कोहिनूर हीरे की अभिवृद्धि हो रही है । मुझे मृत्यु के वक्त भी एक आनंद रहेगा कि जिस तारणहार जनशासन ने मुझे मुक्ति मार्ग के ऊंचे स्तर तक पहोंचाया उसके प्रति कृतज्ञ-भाव के रूप मे यत्किञ्चत् वफादारी में निभा सका हूँ। परम पिता परमेश्वर से मेरी यहीं प्रार्थना है कि 'उहिए नो पमाए" इस आगभिक उद्बोधन को पाकर मेरे द्वारा श्रुतभक्ति के ऐसे सुकृत पुनःपुनः होते रहें । इस अभिलाषा के साथ........। संपादन, प्रस्तावना लेखन आदि कार्य मे जिनाज्ञा विरुद्ध अथवा ग्रन्थकार, टीकाकार आदि के आशय से अनभिमत कोई भी कार्य हुआ हो तो उसके लिए क्षमा-याचना चाहता हूँ। श्री प्रेममूरीश्वरजी गुरुमंदिर पिंडवाडा लि. वि.स २०४८चैत्र सुद ७, गुरुवार युवक जागृतिप्रेरक पूज्यपाद गुरुदेव दिनांक 8 अप्रल १९६२ आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराजापादपद्मरेणु मुनि सयमरत्नविजय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001832
Book TitleKarmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Original Sutra AuthorShivsharmsuri
AuthorGunratnasuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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