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________________ प्रस्तावना [२१ संक्रम होता है । अपूर्वकरण के प्रारंभ में जितनी स्थिति थी उससे संख्यातभाग प्रमाण स्थिति अंत में रहती है। इसी प्रकार स्थितिबंध भी समझना। तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है । वहां भी स्थितिघातादि पूर्ववत् प्रवृत्त रहते है। दृष्टित्रिक देशोपशमना निधत्ति निकाचना रहित होती है । स्थितिसत्ता क्रमश असंज्ञीपंचेन्द्रिय चतुरिन्द्रियादि तुल्य होती है। प्रत्येक अंतर में हजारों स्थितिघात होते हैं । क्रमशः दर्शन मोहनीय की सत्ता पल्योपम के संख्यात भाग प्रमाण होती हैं । तत्पश्चात् पल्योपम के संख्यातभाग, संख्यातभाग प्रमाण स्थितिघात प्रतिसमय करता है। हजारों स्थितिघात होने पर मिथ्यात्य के असंख्यातभाग और सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय के संख्यातमाग का घात करता है । इस प्रकार बहुत स्थितिघात होने पर उदयानलिकारहित समस्त मिथ्यात्व का घात हो जाता है। तदनंतर मिश्रमोहनीय के असंख्यातभाग का नाश करता है । बहुत स्थितिघात के बाद उदयावलिका रहित समस्त मिश्रपोहलीय के दलिक को सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक में प्रक्षेप करता है । उस वक्त सम्यक्त्वमोहनीय की स्थिति आठ वर्ष रहती है । निश्चयनय से वहां से ही दर्शनमोह का क्षपक कहलाता है । यहां से अन्तमुहर्त प्रमाण सम्यक्त्व मोहनीय के स्थितिखण्ड का उत्कीरण कर उदय समय से लेकर गुणश्रेणि सिर तक असंख्यगुण, असंख्यगुण प्रक्षेप करता है । तत्पश्चात् विशेषहीन विशेषहीन यावत् चरमस्थिति । पूर्व पूर्व से असंख्यगुण असंख्यगुण दलिक का उन्किरण करता है । द्विचरम से चरमखंड संख्यात गुण उत्किरण करता है । चरमखण्ड का घात करता हुआ गुणश्रेणि के संख्यातभाग और अन्य संख्यातगुण स्थिति का घात करता है। उसका प्रक्षेप उदय समय से गुणश्रेणि सिर तक असंख्यातगुण, असंख्यातगुण प्रक्षेप करता है उसके उपर उत्कीर्ण खण्ड ही होता है अत: वहां प्रक्षेप नहीं होता है । उस वक्त जीव कृतकरण कहलाता है । वहाँ पर जीव काल करे तो चारों गति में जा सकता है। वहां शेष दलिक को वेदन कर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है । वह शायिक सम्यगदृष्टि जीव उमी भव में , तीसरे भव में अथवा चौथे भव में मोक्ष में जाता है। दर्शनमोहोपशमनाऽधिकार उपशमश्रेणि आरोहक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि यदि क्षायिक समकित प्राप्त नहीं करता है तो वह अवश्यमेव दर्शनत्रिक की पूर्ववत् उपशमना करता है । विशेष यह है कि अनुदित मिथ्यात्व मिश्र की आवलिकाप्रमाण प्रधमस्थिति होती है। उदित सम्यक्त्व मोहनीय की प्रथमस्थिति अन्तमुहूर्त प्रमाण होती है । उत्कीर्य माण दलिक को सम्यक्त्वमोहनीय की प्रथमस्थिति में ही प्रक्षेप करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001832
Book TitleKarmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Original Sutra AuthorShivsharmsuri
AuthorGunratnasuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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