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________________ वराङ्ग चरितम् तृतीयः सर्गः येऽस्त्वया प्रश्नविदा नरेन्द्र चतुर्गतीनां सुखदुःखमूलाः । पृष्टा यथावद्विनयोपचारेरेकाग्रबुद्ध्या शृण ते ब्रवीमि ॥ ४४ ॥ संभाव्य सम्य'ङ्मतिभाजनेन सद्धर्ममार्गश्रुतितोयधाराम् । श्रद्धान्विताः साधु पिबन्ति ये तु ते यान्ति जन्मार्णवदूरपारम् ॥ ४५ ॥ धर्मश्रुतेः पापमुपैति नाशं धर्मश्रुतेः पुण्यमुपैति वृद्धिम् । स्वर्गापवर्गप्रवरोरुसौख्यं धर्मश्रुतेरेव न चान्यतस्तु ॥४६॥ तस्माद्धि धर्मश्रवणानुरागा भवन्तु सर्वे शुभमाप्तुकामाः । जित्वा जरारातिरुजश्च मृत्युं भवन्ति वन्द्या भुवनत्रयस्य ।। ४७ ॥ धर्मानुबन्धा दुरितानुबन्धा मिश्रानुबन्धाश्च यथाक्रमेण । त्रिग विभिन्नाः श्रुतयश्च लोके तासां फलं त्रैधमुदाहरन्ति ॥ ४८ ॥ हे नरेन्द्र ! प्रश्नकलामें पारंगत आपने उपयुक्त विनय तथा शिष्टाचारपूर्वक जो नरकादि चारों गतियों, वहाँ होनेवाले सुखों दुःखोंके मूल कारणभूत कर्मोंके तथा समस्त पदार्थोके रहस्यको अलग-अलग पूछा है वह सब मैं आपके ज्ञानके लिए कहता हूँ, आप अपने चित्तको एकाग्र करके सुनिये ।। ४४ ॥ जो भव्यजीव समीचीन जैनधर्म-शास्त्ररूपी धाराके जलको मत्सर आदि दोषहीन सद्बुद्धिरूपी पात्रमें आदरपूर्वक भर लेते हैं और परम श्रद्धाके साथ भलीभांति पीते हैं ( अर्थात् समझते हैं) वे जन्म मरणरूप संसार महार्णवको सरलतासे पार करके बहुत दूर-( सर्वार्थसिद्धि, मुक्ति) निकल जाते हैं ।। ४५ ॥ धर्मशास्त्रके श्रवण और मननसे पापका समूल नाश होता है, धर्मके तत्त्वोंको सुननेसे ही पुण्य दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता है, और तो क्या स्वर्ग आर मोक्षके सर्वदा स्थायी, अनुपम और अपरिमित सुख और सम्पत्तियाँ भी केवल धर्मचर्चाके अनुशीलनसे ही प्राप्त होते हैं। इनका कोई दूसरा कारण नहीं है ।। ४६ ।। शास्त्र-ज्ञान महिमा अतएव जो प्राणी अपने उद्धारके लिये व्याकुल हैं उन सबको धार्मिक चर्चाओंके श्रवण और मननकी ओर अपनी रुचिको प्रयत्नपूर्वक बढ़ाना चाहिये, क्योंकि धर्मके तत्त्वोंका सतत अनुशीलन करके ही ये प्राणी जन्म, रोग, जरामरण आदि समस्त सांसारिक उत्पातोंको जीतकर तीनों लोकोंके वन्दनीय होते हैं ।। ४७ ।। शास्त्र-स्वरूप इस संसारमें उपलब्ध शास्त्र भी तीन प्रकारके होते हैं जिनका श्रवण और मनन धार्मिक प्रवृत्तिको आगे बढ़ाता है,। १. म सम्यग्गति SEPTEASEReuxeARAHI11AMARPAHESHARITAL.TA [५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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