SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन सूत्र भागः2 कहते हैं महावीर एक ही करवट सोते थे पूरी रात। रात करवट | कारण हुई। जीवन की अनिवार्यता के लिए वह जिम्मेवार नहीं भी न बदलते। नींद में भी सावधानी रखते। न्यूनतम। एक है। अपनी तरफ से उसने सब भांति अपने को रोक लिया है। करवट तो सोना ही पड़ेगा। इससे कम तो और किया नहीं जा और जो व्यक्ति विवेक से नहीं जी रहा है, होश से नहीं जी रहा सकता। हां, दो करवट बदलने से रोका जा सकता है। एक ही है, वह हिंसा न भी करे-पानी छानकर पीये, मांसाहार न करे, करवट, एक ही बाजू पर सोये रहेंगे, करवट न बदलेंगे रात में, रात भोजन न करे, सब तरह से अपने को सम्हालकर बैठा रहे, क्योंकि दूसरी तरफ कुछ कीटाणुओं के मर जाने की फिर लेकिन भीतर अगर हिंसा चलती जा रही है, भीतर अगर हिंसा के संभावना है शरीर के हिलने से। | विचार उठ रहे हैं, तरंगें उठ रही हैं, तो पाप हो गया। मारने से महावीर उतना ही करेंगे जितना जीवन के लिए एकदम | हिंसा नहीं लगती, मारने के भाव से हिंसा लगती है। अनिवार्य है। महावीर ने एकदम जीवन को वहां लाकर ठहरा | इसे तुम समझोगे तो गीता के कृष्ण और महावीर ठीक एक दिया जहां जरा भी अतिशय नहीं है। ठीक परिमार्जित। जगह खड़े हो जाते हैं। दोनों की प्रक्रिया बिलकुल अलग है, राम को लोग मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं। कहना महावीर को दोनों के साधन बिलकुल अलग हैं, लेकिन लक्ष्य बिलकुल साफ चाहिए। ऐसी मर्यादा में कोई आदमी नहीं जीया। उस मर्यादा का है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं तू परमात्मा के ऊपर सब छोड़ दे। तू महावीर का नाम है-समिति। समिति का अर्थ होता है, सीमा कर्ता न रह जा। तू भाव भी मत कर कि मैं मार रहा हूं, कि मैं नहीं बनाकर जीना। इतना पर्याप्त है, इससे फिर रत्तीभर ज्यादा नहीं। मार रहा हूं; परमात्मा पर छोड़ दे। फिर जो होता है, होने दे। 'इसका कारण है कि समिति का पालन करते हुए साधु से जो अगर तेरे भीतर भाव न रहा कि मैं मारता हूं, फिर कोई हिंसा आकस्मिक हिंसा हो जाती है वह केवल द्रव्य-हिंसा है. नहीं। महावीर कहते हैं जाग जा। क्योंकि महावीर की धारणा में भाव-हिंसा नहीं। भाव-हिंसा तो उनसे होती है जो असंयमी होते | परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं है। जो परमात्मा का स्थान है हैं। ये जिन जीवों को कभी मारते नहीं उनकी हिंसा का भी दोष | गीता में, वह महावीर की धारणा में ध्यान का स्थान है उन्हें लगता है। परमात्मा का ध्यान नहीं करना है; महावीर कहते हैं, ध्यान ही असंयमी को, अ-यतन में डूबे हुए मूर्छित व्यक्ति को, | परमात्मा है। जाग जा। फिर जागकर जो होता है, वह अनिवार्य जिनको वह नहीं मारता उनकी भी हिंसा का पाप लग जाता है। है। लेकिन तेरे भीतर भाव न रहे कि मैं हिंसा कर रहा हूं, कि मैं क्योंकि बहुत बार वह सोच लेता है। तुमने कई बार सोचा हिंसा करना चाहता हूं। अभिप्राय से दोष है। कृत्य का कोई दोष होगा-फलां आदमी को मार ही डालें। मारा नहीं है! कितनी नहीं है। बार तुमने नहीं सोच लिया कि आदमी मर ही जाए! तुमने मारने कभी-कभी तो ऐसा होता है, तुम किसी का नुकसान करने गये का भी नहीं सोचा; लेकिन मर ही जाए! दुश्मन की तो बात छोड़ थे...एक आदमी राह से चला जा रहा है, उसको वर्षों से सिरदर्द दो। कभी मां भी अपने बेटे से गुस्से में कह देती है कि तुम पैदा न है; तुमने एक पत्थर उठाकर उसको मार दिया, पत्थर उसके सिर ही हुए होते तो अच्छा था। जिसने पैदा किया है, जिसने जन्म पर ऐसी जगह लगा कि सिरदर्द चला गया। तुम चाहते थे सिर दिया है, वह भी क्रोध में सोचने लगती है कि यह तो न होता तो | तोड़ देना, फल इतना हुआ कि सिरदर्द चला गया। तुमने अच्छा अच्छा था। कोई मारता नहीं इतना, लेकिन योजना तो मन में किया या बुरा किया? हुआ तो अच्छा, किया था बुरा। पाप तो चलती है। उस योजना में ही हिंसा है। विध्वंस है। लगेगा। क्योंकि पाप अभिप्राय से लगता है, तुम्हारे भाव से तो संयमी, मर्यादा में जीनेवाला, समिति में जीनेवाला, | लगता है। इसको महावीर कहते हैं-भाव-हिंसा और यत्नपूर्वक जीनेवाला-अगर कभी उससे संयोगवशात, | द्रव्य-हिंसा...तुम किसी को मारना नही अनिवार्य कारणों से कुछ हिंसा हो भी जाती है, तो उसे कोई किसी का आपरेशन कर रहा है। सब तरह से बचाने को आतुर पापबंध नहीं। उसने करनी नहीं चाही थी। उसके भीतर कोई है, प्राणपण लगा दिये हैं, लेकिन आदमी मर जाता है। तो उसे भाव न था करने का। हुई तो वह जीवन की अनिवार्यता के हम मारे जाने का दोष नहीं देंगे। आदमी तो मरा, उसके 174 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001819
Book TitleJina Sutra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages668
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy