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________________ जिन सूत्र भाग : 1 पढ़ी-लिखी बात कहीं भी जायेगी न, हृदय में छिदेगी न, तीर कोई सुविधा नहीं है। जो हुआ है वह आंतरिक है; उसे बाहर लगेगा न। तुम वैसे के वैसे खाली लौट आओगे, पांडित्य से लाकर प्रगट करने का कोई उपाय नहीं है। जो हुआ है वह इतने भरकर। हां, प्रेम पर अगर कोई कहेगा, तो तुम प्रवचन दे गहन में हुआ है कि उसकी प्रदर्शनी नहीं सजाई जा सकती, कि सकोगे। हां, प्रेम पर कोई कहेगा, तुम पी एच. डी. कर सकोगे। जो भी आयें देख लें। लेकिन प्रेम तुम्हारे जीवन में कहीं भी न होगा। प्रेम तो तुम करोगे | इसीलिए तो दुनिया में इतने परम बुद्धपुरुष हुए, लेकिन फिर तो होगा। प्रेम की कोई परंपरा नहीं होती। प्रेम तो हर व्यक्ति को भी नास्तिकता नहीं मिटती। मिट नहीं सकती, क्योंकि नास्तिक अपना ही खोजना होता है-निजी, वैयक्तिक। यह कह रहा है कि हमें दिखला दो। नास्तिक यह कह रहा है, और अच्छा है कि प्रेम की परंपरा नहीं होती; नहीं तो सोचो, धर्म को परंपरा बना दो। अब यह बड़े मजे की बात है : जिनको कैसा दुर्भाग्य होता, कैसे दुर्दिन आते! लोग प्रेम की किताब पढ़ | तुम धार्मिक कहते हो वे कहते हैं, धर्म परंपरा है। मैं उनको लेते और समाप्त हो जाते! नास्तिक कहता हूं। नास्तिक भी तो यही कह रहा है कि धर्म को सोचो थोड़ा, परमात्मा ऐसे उधार मिलता होता, किसी को मिल परंपरा बना दो, जैसे विज्ञान परंपरा है; हम जायें प्रयोगशाला में गया था पच्चीस सौ साल पहले, महावीर को, बस खतम! और देख लें; टेस्ट-ट्यूब में पकड़ दो परमात्मा को; बिछा दो उन्होंने तुम्हारा सारा अभियान छीन लिया। तब तो महावीर ने टेबल पर सर्जन की तुम्हारी समाधि को; ताकि ठीक-ठीक तुम्हारे जीवन का सारा रस छीन लिया। तब तो वे मित्र न हुए, विश्लेषण हो सके और हम काट-पीट करके जान लें कि मामला दुश्मन हो गये। तब तो तुम्हें उन्होंने मौका ही न छोड़ा कुछ क्या है; ले आओ तुम्हारा अनुभव प्रकाश का, सत्य का, बाजार खोजने का, तुम्हें यात्रा पर जाने की जगह ही न छोड़ी। में, जहां हम सब देख लें; क्योंकि जो निज में घटा है, क्या पता नहीं, परमात्मा कुछ ऐसा है, सत्य कुछ ऐसा है, प्रेम कुछ ऐसा सपना हो। क्योंकि साधारण अनुभव में सपने ही निजी होते हैं, है कि जो खोजता है बस उसी को दर्शन होते हैं। हां, अपने दर्शन बाकी सब चीज तो निजी नहीं है। सिर्फ सपने निजी होते हैं, की बात दूसरे से कह सकता है। लेकिन उस बात से किसी को बाकी तुम जो सपना रात देखते हो, तुम अपनी पत्नी को भी तो दर्शन नहीं होता। उस बात से किसी की सोयी प्यास जग सकती उसमें नहीं बुला सकते कि आओ, आज निमंत्रण है। तुम अपनी है। उस बात से किसी के भीतर उन्मेष हो सकता है कि चलूं, मैं पत्नी को भी तो नहीं कह सकते कि आज, चलो दोनों साथ-साथ भी खोजू; किसी के भीतर चुनौती आ सकती है कि चलूं, मैं क्या एक ही सपना देखें। कर रहा हूं बैठा-बैठा, उठू! यह कहां गंवा रहा हूं जीवन बाजार | दो आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास इलाज करवा रहे थे। में और दुकान में, उलूं, उसे खोजूं! दोनों ने एक दिन सोचा, दफ्तर से बाहर निकलते हुए, एक इसलिए पहली बातः धर्म परंपरा नहीं है। धर्म चिर-पुरातन, | मजाक करने की बात सोची। एक अप्रैल आ रही थी, तो सोचा नित-नूतन है। यह विरोधाभास है। सदा से है, लेकिन फिर भी कि अप्रैल के दिन एक मजाक करें...मैं भी आऊंगा और एक हर बार नया-नया खोजना पड़ता है। जब धर्म का सूर्योदय होता सपना कहूंगा। और दोनों ने सपना तय कर लिया मनोवैज्ञानिक है तो वह निजी है, वैयक्तिक है, वह सामूहिक नहीं है। वह को सुनाने के लिए। फिर शाम को तुम आना और तुम भी वही समाज की संपत्ति और थाती नहीं बनता। अगर तुम भरोसा न सपना कहना। देखें, इस पर क्या गुजरती है। क्योंकि दो आदमी करो बुद्ध पर तो बुद्ध के पास कोई उपाय नहीं है तुम्हें भरोसा | एक ही सपना तो देख ही नहीं सकते। तो उन्होंने सपना तय कर दिलाने का। कभी तुमने इस पर सोचा? अगर तुम कहो कि हमें लिया विस्तार से; एक-एक बात कि क्या-क्या हुआ सपने में, शक है कि तुम झूठ बोल रहे हो, कि तुम्हें हुआ है परमात्मा का लिख लिया, कंठस्थ कर लिया। सुबह एक आया और उसने अनुभव, हम कैसे माने? तो बुद्ध भी कंधे बिचकाकर रह कहा कि रात एक सपना देखा, इसका अर्थ करें। मनोवैज्ञानिक ने जायेंगे; वे कहेंगे, अब क्या उपाय है! जो हुआ है वह निजी और उसका सपना सुना। दोपहर दूसरा आया। उसने भी वही सपना वैयक्तिक है। उसे तुम्हारे सामने टेबल पर फैलाकर रख देने की दोहराया। उसने कहा कि रात एक सपना देखा और विस्तार 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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