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________________ 550 जिन सूत्र भाग: 1 लिए था? और प्रेयसी भी यही सोचने लगती है कि इस आदमी में जो भगवत्ता देखी थी वह कहां गई ! इसके चरणों में सिर रखने का मन हुआ था - तो वे चरण सब बनावटी थे ! वह सब पाखंड था ? जल्दी ही कांटे उभर आते हैं, फूल विदा हो जाते हैं। जल्दी ही यथार्थ प्रगट होता है और सपने हट जाते हैं। और ऐसा प्रेमी और प्रेयसी के बीच होता है, ऐसा नहीं - ऐसा हमारे हर संबंध में होता है। ऐसे जीवन के हर मोड़ पर हम उन चीजों को देख लेते हैं जो हैं नहीं। हम उन इंद्रधनुषों को तान लेते कहीं भी नहीं हैं। और फिर जब इंद्रधनुष नहीं पाते हैं तो रोते हैं, चीखते हैं, विषाद से भरते हैं, दुखी होते हैं, चिंतित होते हैं। दर्शन का अर्थ है : जो है उसे बिना किसी आशा से समिश्रित किए, बिना किसी कल्पना में डुबाये, बिना कैसा होना चाहिए उसको बीच में लाये, देख लेने की कला ! आंख साफ हो तो तुम कभी उलझोगे न । आंख साफ हो तो यथार्थ से संबंध रहेगा; अयथार्थ तुम्हें बांधेगा न । और आंख साफ हो, तो साफ आंख से जो बोध संगृहीत होता है उसका नाम ज्ञान। साफ आंख से संगृहीत बोध का अंतिम जो परिणाम होता है, उसका नाम चारित्र्य और चारित्र्य का जो आत्यंतिक फल है। महावीर का वह मोक्ष । अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ? शुद्ध दर्शन से जो दिखायी पड़ता है, यथार्थ, उस यथार्थ से ही अपनी जीवन की कुटिया को बना लेने का नाम चारित्र्य है । स्वप्न से जीवन को बनाना और सत्य से जीवन को बनाना - बस यही जीवन को बनाने के दो ढंग हैं। ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को एक अपनी शांति की कोई मनाही नहीं है। है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? -आंख के दीये को जलाओ ! दर्शन को जगाओ ! कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से संवारा स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जोसना था Jain Education International कुटिया बनाना कब मना है ? है अंधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ? लेकिन यह किसी बाहर के दीये के जलाने की बात नहीं है—भीतर के दीये को जलाने की बात है। और यह दीया जलने लगता है जैसे-जैसे तुम आंख को साफ करके देखने लगते हो। तो क्या करो ? रात अंधेरी है । यथार्थ कठोर है। लेकिन दीये के जलाने की जायेंगी । उनको हटाते चलो। शब्द है— सामायिक | पतंजलि का शब्द है — ध्यान । बुद्ध का शब्द है – सम्यक स्मृति । जीवन को जागरण से भरो! जो भी करते हो, करते समय स्मरण रखो कि सपनों को हटाते चलो। पुरानी आदतें हैं, वे बार-बार बीच में आ तेरी दुआ है कि हो तेरी आरजू पूरी मेरी दुआ है कि तेरी आरजू बदल जाए। तुम तो चाहते हो कि तुम्हारी आकांक्षाएं पूरी हो जायें, लेकिन महावीर, बुद्ध, कृष्ण चाहते हैं तुम्हारी आकांक्षाएं बदल जायें। आकांक्षाएं पूरी करना चाहोगे तो सपनों में रहोगे। आकांक्षा बदल जाए, आकांक्षा न हो जाए, शून्य हो जाए तो आकांक्षा के नीचे से जो शक्ति बचेगी, जो आकांक्षा में नियोजित थी, मुक्त होगी, वह तुम्हारे जीवन में विस्फोट हो जायेगा; जैसे अणु को हम तोड़ते हैं, तो छोटे-से अणु में जो आंख से भी दिखायी नहीं पड़ता, इतनी ऊर्जा प्रगट होती है ! अणु के जो परमाणु हैं वह एक-दूसरे को बांधे हुए हैं। जब उन्हें हम अलग करते हैं तो जो शक्ति उनको बांधे थी, वह मुक्त होती है। उस मुक्त शक्ति का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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