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________________ 386 जिन सूत्र भाग: 1 तुम न जागो तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम्हें ही देखना पड़ेगा कि तुमने कहां-कहां अपनी ग्रंथियों को मजबूत करने के लिए तर्क खोज रखे हैं। क्रोध करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। मोह करते हो तो तुम कहते हो, जरूरी है। राग को तुम प्रेम कहते हो। अच्छा शब्द रख लेते हो, नीचे गंदगी छिप जाती है। भय के कारण किसी के साथ हो लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है। लोभ के कारण किसी के साथ हाथ में हाथ डाल लेते हो; लेकिन कहते हो, मैत्री है, मित्रता है । अहंकार के कारण त्याग करते हो; लेकिन कहते हो, दान है। ऐसे तो फिर तुम ग्रंथियों में उलझते चले जाओगे। फिर तो ग्रंथियों के जंगल में खो जाओगे । महावीर कहते हैं, सरल हो रहो। जैसे हो वैसा ही अपने को जानो। धीरे-धीरे ग्रंथियां छूट जाती हैं और जीवन में एक अलग तरह की ऊर्जा का आविर्भाव होता है। एक सहजता ! एक सरलता ! एक भोलापन ! एक बच्चे के जैसा भाव ! 'निराग, निशल्य...।' और निश्चित ही जिस आदमी के जीवन में कोई ग्रंथि नहीं है, उसके जीवन में कोई राग नहीं होता। उसके पास न बचाने को कुछ है, न छोड़ने को कुछ है । और जिस आदमी के जीवन में निर्ग्रथि है, उसके जीवन में शल्य खो जाते हैं। शल्य यानी कांटे। जो चुभते हैं, वह खो जाते हैं। किसी ने तुम्हें गाली दी । तुम कहते हो, इसकी गाली चुभी । गाली के कारण गाली नहीं चुभती - तुम्हारे अहंकार के कारण चुभती है। अहंकार को जाने दो, फिर कोई गाली देता रहे, कोई फर्क न पड़ेगा। फिर गाली में कोई शल्य न रह जायेगा। 'निशल्यता' महावीर का बड़ा प्यारा शब्द है । वे कहते हैं, भीतर से तुम कांटों को पकड़ने को तैयार हो, वही असली शल्य है। तुमने मान चाहा, इसलिए अपमान का कांटा चुभा । तुम मान ही न चाहते तो अपमान का कांटा न चुभता । तुमने सफलता चाही, इसलिए विफलता का विषाद आया। तुम सफलता ही न मांगते, विफलता का विषाद कभी न आता। तुमने प्रथम खड़े होना चाहा था, इसलिए तुम रो रहे हो कि तुम प्रथम खड़े न हो पाये । तुमने अंतिम ही खड़े होने की आकांक्षा की होती, तो तुम्हें कौन हरा पाता ? फिर तुम्हारा जीवन निशल्य हो जाता। 'सर्वदोषों से विमुक्त, निष्काम, निक्रोध, निर्मान और निर्मद... ।' Jain Education International ये आत्मा की तरफ इशारे हैं। ये इशारे जो आत्मा को उपलब्ध हो जाता है, उसे उपलब्ध होते हैं। और जो आत्मा को उपलब्ध नहीं हुआ है, उसके लिए ये इशारे मार्ग के सूचक हैं। ये दो बातें हैं इसमें । यह आत्मा की दशा का वर्णन है और आत्मा की तरफ पहुंचने की व्यवस्था, उपाय भी । तो अगर तुम्हें उसे पाना है— उस आत्मा को, जहां कोई मद नहीं है, जहां कोई बेहोशी नहीं है, न मान का मद है, न पद का, न धन का, कोई मद नहीं है—अगर तुम्हें उस दशा को पाना है, तो मदों को छोड़ना शुरू कर दो। अकड़ो मत! तो अपने को हटाने लगो मद से । उस आत्मा की दशा में कोई ग्रंथि नहीं है। तो अगर तुम्हें उसे पाना है। तो ग्रंथियों को धीरे-धीरे छोड़ो; जितना बन सके उतना छोड़ो; जिस मात्रा में बन सके उतना छोड़ो। कभी-कभी सच होना शुरू करो, सरल होना शुरू करो। कभी-कभी तो सचाई को करके भी देखो, जोखिम भी हो तो भी करके देखो। कभी सच भी बोलकर देखो; चाहे कुछ खोता हो तो भी बोलकर देखो। दांव लगाओ। अगर आत्मा निशल्य है तो तुम अपने कांटे जहां-जहां तुम्हें चुभते हैं उनको पहचानो। दूसरे को दोष मत दो। अपने भीतर घाव उनको भरो। जब तक तुम दूसरे को दोष देते रहोगे, वे घाव न भरेंगे। और तब तक तुम बार-बार कांटों से चुभते रहोगे और घाव को संजोते रहोगे। अब कौन चाहता है कि गाली कोई दे ! लेकिन तुम कैसे रोकोगे इस सारे संसार को कि कोई तुम्हें गाली न दे ? उपाय एक है कि तुम भीतर से गाली जहां अटकती है, खटकती है, उस जगह को हटा दो। तुम उस घाव को भर लो, फिर सारा संसार गाली देता रहे तो भी तुम इसके बीच से गुजर जाओगे - निशल्य | यह जो वर्णन है आत्मा का, यही पथ भी है पहुंचने का । दिल में जौके - वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं आग इस घर को लगी ऐसी कि जो था जल गया। ऐसी आग लगाओ इस घर को, इस बेहोशी को, कि जो भी है इसमें, जल जाये। ऐसी आग सुलगाओ कि ये सारी ग्रंथियां, ये सारे शल्य, ये सारे घाव, यह तादात्म्य - शरीर का, मन का, विचार का, यह अहंकार, यह मिट्टी के प्रति इतनी ज्यादा आकांक्षा, जल जाये! दिल में जौके - वस्लो-यादे-यार तक बाकी नहीं ! - कि इनकी याद भी न रह जाये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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