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________________ M जिन सत्र भाग । POST Scood | तो यहां भी है। एक दफा आंख खुल गई, तो घर में भी वही है, खड़े हो जाओ! बाहर भी वही है। दुकान पर भी वही है, मंदिर में भी वही है। खड़े होते ही तुम्हारे संबंध शाश्वत से जुड़ जाते हैं। इसलिए असली सवाल आंख का है। | तो मैं तुम से यह नहीं कह सकता कि क्या पाकर तुम संतुष्ट तुम यह मत पूछो कि क्या चाहता हूं। और यह भी मत पूछो | होओगे; मैं तुमसे इतना ही कह सकता हूं कि पाने से संतोष का कि मैं क्या पाकर संतुष्ट होऊंगा। कुछ भी पाकर संतुष्ट न कोई संबंध नहीं है। तुम पाने की व्यर्थता देखो। उस व्यर्थता के होओगे। पानेवाला कभी संतुष्ट हुआ? पानेवाले का असंतोष दर्शन में ही पाने की दौड़ गिर जायेगी। तुम अचानक अपने को आगे सरकता जाता है, बड़ा होता चला जाता है, फैलता चला खड़ा हुआ पाओगे, दौड़ते हुए नहीं। अचानक तुम पाओगे, जाता है-गुब्बारे की तरह। इसलिए तो अमीर भी गरीब बना तुम्हारे भीतर की प्रज्ञा थिर हो गई, कंपित नहीं हो रही। उस एक रहता है और सम्राट भी भिखारी बने रहते हैं। अकंपन के क्षण में ही तुम तृप्त हो जाओगे। फरीद अकबर के पास गया था। गांव के लोगों ने भेज दिया। और एक बार तृप्ति की झलक मिल जाये तो राज हाथ आ कहा कि गांव में एक मदरसा चाहिए। कह दो अकबर को। तुम्हें गया, तो आंख हाथ आ गई, तो देखने का ढंग आ गया। इतना मानता है। फरीद गया। अकबर प्रार्थना कर रहा था, परमात्मा तो है, देखने का ढंग चाहिए। सुबह की नमाज पढ़ रहा था। फरीद पीछे खड़ा रहा। अकबर ने हुस्न की दुनिया को आंखों से न देख अपने दोनों हाथ फैलाये, नमाज की पूर्णता पर और कहा, 'हे अपनी एक तर्जे-नज़र ईजाद कर। परमात्मा! और धन दे, और दौलत दे! तेरी कृपा की दृष्टि हो।' यह जो परमात्मा के सौंदर्य का जगत है, यह जो परम सौंदर्य फरीद लौट पड़ा। अकबर उठा, देखा, फरीद सीढ़ियों से नीचे का जगत है, इसको साधारण आंखों से देखने की कोशिश मत जा रहा है ! कहा, कैसे आए? क्योंकि फरीद कभी आया भी न | करो, अन्यथा असंतुष्ट रहोगे, अभाव में जीयोगे। भिखारी था। जब भी जाता था, अकबर ही उसके पास जाता था। रहोगे। कैसे आए और कैसे चले? फरीद ने कहा, 'मैंने सोचा था कि हस्न की दुनिया को आंखों से न देख तुम सम्राट हो। यहां भी भिखारी को देखा, इसलिए लौट चला। अपनी एक तर्जे-नज़र ईजाद कर। और फिर मैंने सोचा कि तुम जिससे मांग रहे हो उसी से मैं मांग एक नया ढंग, एक नई शैली देखने की खोजो। संतुष्ट हो कर लूंगा। बीच में और यह एक...एक दलाल बीच में और क्यों! देखो। अभी तुमने असंतुष्ट होकर देखा है। असंतुष्ट हो कर गांव के लोगों ने भेजा था कि एक मदरसा खोल दो, यह मांगने देखा है तो असंतोष बढ़ता चला गया है। तुम्हारी आंख में है तो आया था; लेकिन अब नहीं। इससे तुम्हारी दौलत में थोड़ी कमी फैलता चला गया है। संतुष्ट होकर देखो, संतोष आंख में होगा, हो जाएगी। मैं तुम्हें दरिद्र हुआ न देखना चाहूंगा। मेरी तो एक ही | तुम पाओगे संतोष फैलता जाता है। आकांक्षा है, सभी समृद्ध हों। लेकिन तुम भिखारी हो।' तुम्हारे जीवन की दृष्टि ही तुम्हारे जीवन का सत्य हो जाती है। तुम्हारा सम्राट भी तो मांग ही रहा है। और मांग रहा है। और जो तुम विचारते हो वही वास्तविकता हो जाती है। अभी तक मांग रहा है। जिनके पास है वे भी मांग रहे हैं। तुमने असंतोष, असंतोष, असंतोष, इसको ही साजा-संवारा, तो एक बात तय है कि मिलने से मांगना नहीं मिटता-त्यागने इसके ही बीज बोए, इससे ही देखा-निश्चित ही, असंतोष से मांगना मिटता है। बढ़ता चला गया। जो बीज बोओगे, उसकी ही फसल तो । इसलिए तो एक अनूठी घटना इस पूरब में घटी कि सम्राट तो काटोगे। यह छोटे-से गणित को पहचानो। थोड़ा संतोष से हमने पाए कि भिखारी हैं और कभी-कभी हमने कुछ भिखारी देखो। थोड़ा ऐसे देखो कि कोई असंतोष नहीं है, सब है। भरी पाए जो सम्राट... । महावीर, बुद्ध भिखारी होकर खड़े हो गए, आंख, प्रफुल्ल चित्त, कृतज्ञता से भरे, कृतज्ञता में डूबे, कुछ भी उनके पास न था। क्योंकि उन्हें एक बात दिखाई पड़ गई | पगे-ऐसा देखो। अचानक तुम पाओगे, कहीं तो कुछ कमी कि दौड़े जाओ, दौड़े जाओ, दौड़े जाओ, पहुंचोगे न। ठहरो, नहीं है! सब तो पूरा-पूरा है! सब तो भरा-भरा है! कहीं तो 2201 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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