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________________ सम्यक ज्ञान मुक्ति है सत्यमय होना पड़ेगा। जो सत्य है, वह सत्य को देखेगा। और | कि उसे हंसी आ रही है, लेकिन समाज नियमन करेगा कि सब तब तुम्हें संज्ञाएं न दिखायी पड़ेंगी, क्रियाएं दिखायी पड़ेंगी। स्थान सब समय हंसने के योग्य नहीं हैं। कोई मर गया हो और आत्मा कोई वस्तु थोड़े ही है कि तुम उसे मुट्ठी में बांध ले सकते तुम हंसने लगो...। हो-आत्मा तो तुम्हारे भीतर चैतन्य की सतत प्रक्रिया है। वह मेरे एक शिक्षक मर गये थे। बड़े सीधे-साधे शिक्षक थे। जो चैतन्य का आविर्भाव हो रहा है पल-पल, वह जो साक्षी जन्म रहने-सहने का ढंग भी उनका बड़ा सीधा-साधा था। एक बड़ी रहा है शून्य से निरंतर-वही है आत्मा। पगड़ी बांधते थे। अकेले ही थे उस पूरे गांव में, जो उतना बड़ा मनस्विद कहते हैं कि आदमी जब पैदा होता है तो शून्य की पग्गड़ बांधते थे। चलते भी ऐसे ढीले-ढाले थे। संस्कृत के तरह पैदा होता है। बच्चा पैदा हुआ, शून्य की तरह पैदा होता| शिक्षक थे। तो उनको लोग पोंगा-पंडित ही समझते थे। स्कूल है। अभी उसे कुछ भी पता नहीं है। वह है, ऐसा भी पता नहीं में उनका नाम बच्चों ने 'भोलेनाथ' रख लिया था। जैसे ही वे है। इसे होने के लिए भी थोड़ी देर लगेगी। लेकिन पैदा हुआ है, | आते, बच्चे कहने लगते : 'जय भोले बाबा!' उनकी कमीज तो शून्य की तरह—यह उसकी पहली जीवन-घटना है। लेकिन पर पीछे लिख देते : 'जय भोले बाबा!' बोर्ड पर लिख देते: जैसे ही बच्चा पैदा हुआ, मिटने का भय समाने लगता है। जब भोलानाथ। वे नाराज भी होते थे, लेकिन उनकी नाराजगी भी हुए, तो मिटने का भय भी आता है। भूख लगती है, प्यास बड़ी प्रीतिकर थी। वे बड़ी नाच-कूद भी मचाते थे, बड़े गुस्से में लगती है-मिटने का भय पकड़ने लगता है। तो पहली जो भी आ जाते थे। मरने-मारने की जैसी हालत होती, लेकिन तुम्हारे भीतर गहनतम स्थिति है, वह तो शून्य की है। उसे मारते-करते किसी को न थे। सीधे-साधे आदमी थे। शोरगुल महावीर आत्मा कहते हैं। बुद्ध उसे अनात्मा कहते हैं। दोनों कहे मचाकर चुप हो जाते थे। जा सकते हैं-आत्मा, क्योंकि वह तुम्हारा स्वरूप वे मरे तो मैं अपने पिता के साथ उनके घर गया। उनकी लाश है-अनात्मा, क्योंकि वहां 'मैं' जैसा कोई भाव नहीं, शुद्ध | पड़ी थी। और उनकी पत्नी आयी और उनकी छाती पर गिर पड़ी स्वरूप है। 'मैं' भी नहीं है वहां। लेकिन जैसे ही बच्चा पैदा | और कहा, 'हाय, मेरे भोलेनाथ!' भोलेनाथ कहकर हम उन्हें हुआ कि डर पैदा हुआ कि अब मैं हूं, तो कहीं मिट न जाऊं। चिढ़ाते थे। यह तो किसी और को पता न था, मुझको ही पता जहां 'हूं' आया, वहां न होने का भय भी आया। जहां प्रकाश था। वहां तो सब बड़े-बूढ़े थे। तो वे तो चुप रहे, लेकिन मुझे आया, पीछे-पीछे अंधेरा भी आया। तो एक भय की पर्त खड़ी | बड़ी जोर की हंसी आई कि यह तो हद्द मजाक हो गयी! जिंदगी होती है। शून्य है भीतर, उसके आसपास भय की पर्त है। अमृत में भी 'भोलेनाथ', मरकर अब कोई और कहने को नहीं तो खुद है भीतर, उसके आसपास मृत्यु की पर्त है। पत्नी कह रही है, 'हाय मेरे, भोलेनाथ।' जितना मैंने रोकने की फिर समाज बच्चे को ढालना शुरू करता है। बच्चे को वैसा कोशिश की, उतनी मुश्किल हो गयी। आखिर हंसी निकल ही ही नहीं छोड़ देता, जैसा वह आया है। संस्कार देने हैं। शिक्षा | पड़ी। पिता नाराज हुए। कहा, दुबारा अब कभी ऐसी जगह न ले देनी है। सभ्यता देनी है। बहुत कुछ काटना है, बहुत कुछ | जायेंगे। और शिष्टाचार सीखो। यह कोई ढंग हुआ? वहां कोई बनाना है। बहुत कुछ नया उगाना है, बहुत कुछ हटाना है। मरा पड़ा है, लोग रो रहे हैं और तुम हंस रहे हो! समाज कांट-छांट शुरू करता है। छैनी उठा लेता है। तो बच्चे मैंने उनसे कहा, मेरी भी तो सुनो। वहां किसी को पता ही नहीं के भीतर एक तीसरी पर्त पैदा होती है-नीति की, समाज की, था, जो राज मुझे पता है। जिस वजह से मुझे हंसी आयी-वह संस्कार की, संस्कृति की। लेकिन स्वभावतः यह जो संस्कृति, | हंसी यह थी कि जिंदगीभर इस आदमी को हम भोलानाथ कहकर समाज की पर्त है, यह उसके स्वभाव के प्रतिकूल पड़ती है। नहीं | चिढ़ाते रहे, मरकर भी मजाक तो देखो! कोई और नहीं तो खुद तो इसकी जरूरत ही न होती। इसकी जरूरत ही इसलिए होती है पत्नी कह रही है, 'हाय मेरे भोलेनाथ!' यह आदमी, इसकी कि जैसा बच्चा स्वभाव के अनुसार है, वैसा समाज को अंगीकार आत्मा वहां भी उछलने-कूदने लगी होगी, नाराज हो गई होगी नहीं है। बच्चा बेवक्त हंसने लगे, उसके स्वभाव के अनुकूल है कि हद्द हो गई। आखिरी विदा के क्षण में भी! 163 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001818
Book TitleJina Sutra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1993
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, K000, & K999
File Size25 MB
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