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________________ ३७६ गो० जीवकाण्डे कम्मैव अष्टविधकर्मस्कंधमे कार्मणं कामणमप्प शरीरं अथवा कर्मभवं कार्मणशरीरनामकर्मोदयदोळादुदु कार्मणम् । तेन आ कार्मणस्कंधदोडने प्रवर्त्तमानमप्प यः संयोगः आत्मन काकर्षणशक्तिसंगतप्रदेशपरिस्पंदरूपमप्प योगः सः अदा कार्मणकाययोगमें दुक्तमास्तु। आ कार्मणकाययोगमुमेकद्वित्रिसमयविशिष्टंगळप्प विग्रहगतिकालंगळोळु केवलिसमुद्घात संबंधिगळप्प प्रतरद्वयलोकपूरणसमयत्रयदोळं प्रत्तिसुगुमुळिद कालदोळिल्ले दितु विभागं तु शब्ददिदं सूचितमक्कुमिदरिदं शेषयोगंगळ्गे अव्याघातविषयदोळंतर्महुर्तमप्पकालमुं व्याघातविषयदोळेकसमयादियथासंभवांतर्मुहूर्तपयंतमप्प कालमेकजीवं प्रति भणितमकुं । नानाजीवापेक्षयिदं उदसमसुहमेत्यादि सांतरमार्गणाष्टकमं वज्जिसि शेषनिरंतरमार्गणेगळगे सर्वकालम दितु विशेषमरियल्पडुगुं । अनंतर योगप्रवृत्तिप्रकारमं पेळ्दपं । वेगुम्विय आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरदम्मि । जोगो वि एक्ककाले एक्केव य होदि णियमेण ।।२४२।। वैक्रियिकाहारकक्रिया न समं प्रमत्तविरते। योगोप्येककाले एक एव च भवति नियमेन॥ कर्मव-अष्टविधकर्मस्कन्ध एव, कार्मणं-कार्मणशरीरं, अथवा कर्मभवं-कार्मणशरीरनामकर्मोदयजातं १५ तत कार्मणं तेन कार्मणस्कन्धेन सह वर्तमानो यः संप्रयोगः आत्मनः कर्माकर्षणशक्तिसङ्गतप्रदेशपरिस्पन्दरूपो योगः स कार्मणकाययोग इत्युच्यते । स कार्मणकाययोगः एकद्वित्रिसमय विशिष्टविग्रहगतिकालेषु केवलिसमुद्घातसम्बन्धिप्रतरद्वयलोकपूरणे समयत्रये च प्रवर्तते शेषकाले नास्तीति विभागः तुशब्देन सूच्यते । अनेन शेषयोगानामव्याघातविषये अन्तर्मुहूर्तकालो व्याघातविषये एकसमयादि यथासंभवान्तर्मुहूर्तपर्यन्तकालश्च एकजीवं प्रति भणितो भवति । नानाजीवापेक्षया उवसमसुहमेत्याद्यष्टसान्तरमार्गणावजितशेषनिरन्तरमार्गणानां सर्वकाल २. इति विशेषो ज्ञातव्यः ॥२४१॥ अथ योगप्रवृत्तिप्रकारमाह कर्म ही अर्थात् आठ प्रकारके कर्मोंका स्कन्ध ही, कार्मण अर्थात् कामण शरीर है । अथवा कर्मभव अर्थात् कार्मणशरीरनामकर्मके उदयसे जो उत्पन्न हुआ,वह कार्मण है। उस कार्मणस्कन्धके साथ वर्तमान जो सम्प्रयोग अर्थात् आत्माके कर्मोको आकर्षण करनेकी शक्तिसे संयुक्त प्रदेशोंका परिस्पन्दरूप योग है, वह कार्मणकाय योग कहा जाता है। वह कार्मणकाययोग एक-दो या तीन समयवाली विग्रहगतिके कालमें और केवलीसमुद्धात सम्बन्धी दो प्रतर और लोकपरणके तीन समयोंमें होता है; शेष कालमें नहीं होता। यह विभाग 'तु' शब्दसे सूचित होता है। इससे शेष योग यदि कोई व्याघात न हो,तो अन्त काल तक और यदि व्याघात हो,तो एक समयसे लेकर यथासम्भव अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त एक जीवकी अपेक्षा होते हैं, यह कहा है । नाना जीवोंकी अपेक्षा 'उवसमसुहुमाहारे' इत्यादि गाथामें कही आठ सान्तर मार्गणाओंको छोड़ शेष निरन्तर मार्गणाका सर्वकाल कहा है सो ही जानना ।।२४१॥ आगे योगों की प्रवृत्तिका प्रकार कहते हैं१. म व्याघात । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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