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________________ ३५ प्रस्तावना क्षायिक सम्यक्त्व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त होता है । वेदक सम्यक्त्व असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान पर्यन्त होता है । उपशम सम्यक्त्व असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्त कषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है । सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यक मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि अपने-अपने गुणस्थान में होते हैं। १३. संज्ञी मार्गणा - इसके दो भेद हैं- संज्ञी और असंज्ञी । मन सहित जीवों को संज्ञी और मन रहित जीवों को असंज्ञी कहते हैं। संज्ञी मिथ्यात्व से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है । असंज्ञी के प्रथम ही गुणस्थान होता है । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेद्रिय पर्यन्त जीव असंज्ञी होते हैं। १४. आहार मार्गणा - तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण करने का नाम आहार है । एकेन्द्रिय से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त जीव आहारक होते हैं। विग्रह गति को प्राप्त मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि तथा समुद्घात करते हुए केवली, अयोगकेवली और सिद्ध अनाहारक होते हैं। इस प्रकार यह गुणस्थानों और मार्गणाओं का संक्षिप्त विवेचन है। जीवकाण्ड में इसी का विस्तार है । गोम्मटसार की टीकाएँ लगभग पाँच दशक पूर्व भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता के अन्तर्गत गांधी हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला से 'गोम्मटसार' का बृहत्संस्करण प्रकाशित हुआ था। उसमें मूलग्रन्थ के साथ दो संस्कृत टीकाएँ तथा एक ढूंढारी भाषा टीका दी गयी थी । संस्कृत टीकाओं का नाम जीवतत्त्वत्प्रदीपिका और मन्दप्रबोधिका है और ढूंढारी भाषा टीका का नाम सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका है । ग्रन्थ के मुखपृष्ठ पर जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका को केशववर्णीकृत और मन्दप्रबोधिका को अभयचन्द्राचार्यकृत अंकित किया है तथा सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका के कर्ता पं. टोडरमलजी हैं 1 इस तरह उस समय तक उपलब्ध टीकाओं के साथ इस संस्करण का सर्वप्रथम प्रकाशन हुआ था । और उसके साथ ही तीनों टीकाएँ भी प्रथम बार ही प्रकाश में आयी थीं। इन तीनों टीकाओं में से मन्द-प्रबोधिका तो अपूर्ण है। मुद्रित संस्करण में जीवकाण्ड की गाथा ३८३ तक ही यह टीका मुद्रित है । अतः यह टीका पूर्ण ग्रन्थ पर नहीं है। केवल एक जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका और तदनुसारी सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका परिपूर्ण है। जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका के कर्तृत्व में भ्रम जैसा ऊपर लिखा है कि इस संस्करण के मुख पृष्ठ पर जीवतत्त्वप्रदीपिका का कर्ता केशववर्णी को लिखा है। इस टीका की भाषा टीका करनेवाले पं. टोडरमलजी ने भी इसे केशववर्णीकृत लिखा। उन्होंने अपनी भाषा टीका के अन्त में लिखा है केशववर्णी भव्यविचार कर्णाटक टीका अनुसार । संस्कृत टीका कीनी यहु जो अशुद्ध सो शुद्ध यह हिन्दी पद्य जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका के अन्तिम पद्य का ही अनुवाद है और उसी पद्य की अशुद्धि के कारण यह भ्रम प्रवर्तित हुआ कि संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका केशववर्णीकृत है और वह जिस कर्णाटकवृत्ति के आधार पर रची गयी है, वह चामुण्डराय विरचित है; क्योंकि गोम्मटसार के अन्त में उसके रचयिता नेमिचन्द्राचार्य ने चामुण्डराय की एक वृत्ति का निर्देश करते हुए उसका नाम वीरमार्तण्डी लिखा है । वीर मार्तण्ड चामुण्डराय की एक उपाधि थी । किन्तु इस टीका का कोई पता नहीं चला । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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