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________________ ३२ गोम्मटसार जीवकाण्ड सत्य और अनुभय मनोयोग संज्ञीमिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त गुणस्थानों में होता है। असत्य मनोयोग और उभयमनोयोग संज्ञीमिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होता है। ___ अनुभय वचन योग दोइन्द्रिय से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त होता है। सत्यवचनयोग संज्ञीमिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त होता है। असत्य वचन योग और उभय वचन योग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यंत होते हैं। काय योग के सात भेद हैं-औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिक मिश्रकाययोग, आहारकाययोग, अहारकमिश्रकाययोग, कार्मणकाययोग। उदार अर्थात् महत्शरीर को औदारिक कहते हैं। उसके निमित्त से होनेवाले योग को औदारिक काययोग कहते हैं। औदारिक जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक मिश्र कहलाता है, उसके द्वारा होनेवाला योग औदारिक मिश्रकाययोग है। अनेक गुणों और ऋद्धियों से युक्त शरीर को वैक्रियिक शरीर कहते हैं। उसके द्वारा होने वाले योग को वैक्रियिककाययोग कहते हैं। वैक्रियिक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक वैक्रियिक मिश्र कहलाता है। उसके द्वारा जो योग होता है, वह वैक्रियिक मिश्रकाययोग है। जिसके द्वारा मुनि सन्देह होने पर सूक्ष्म अर्थों को ग्रहण करता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं, उससे जो योग होता है, उसे आहारक काययोग कहते हैं। जब तक आहारक शरीर पूर्ण नहीं होता, तब तक उसे आहारक मिश्र कहते हैं और उससे होनेवाले योग को आहारक मिश्र योग कह हैं। कर्म ही कार्मण शरीर है। उसके निमित्त से जो योग होता है, वह कार्मणकाय योग है। तिर्यंच और मनुष्यों के औदारिककाय योग औदारिक मिश्रकाययोग होते हैं। देवों और नारकियों के वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिक मिश्र काययोग होते हैं। ऋद्धि प्राप्त मुनियों के आहारक काययोग आहारक मिश्रकाययोग होते हैं। विग्रहगति में स्थिर चारों गतियों के जीवों के तथा प्रतर और लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवलिजिन के कार्मणकाययोग होता है। औदारिककाययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, सयोगकेवली पर्यन्त गुणस्थानों में होते हैं। वैक्रियिक काययोग वैक्रियिक मिश्र काययोग प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में होते हैं। आहारक काययोग आहारक मिश्र काययोग एक प्रमत्त संयत गणस्थान में ही होता है। कार्मणकाययोग विग्रहगति में तथा सयोगकेवली के समुद्धात समय में होता है। ५. वेदमार्गणा-वेद तीन हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद। स्त्रीवेद और पुरुषवेद असंज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्ति गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। नपुंसक वेद एकेन्द्रिय से लेकर अनिवृत्तिगुणस्थान पर्यन्त होता है। उसके बाद के सब गुणस्थान वाले जीव वेद रहित होते हैं। मूल वेद के दो भेद हैं-द्रव्यवेद और भाववेद । शरीर में स्त्री या पुरुष का चिह्न होता है-लिंग, योनि, आदि वह द्रव्यवेद है। द्रव्यवेद तो शरीर के साथ सटा रहता है। रमण की भावना का नाम भाववेद है; वही नौवें गुणस्थान तक रहता है। उक्त कथन भाववेद की अपेक्षा है। नारकी सब नपुंसक वेदी होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चौइन्द्रिय पर्यन्त सब तिर्यंच भी नपुंसक वेदी होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर सब तिर्यंचों में तीनों वेद होते हैं। मनुष्यों में भी तीनों वेद होते हैं। देवों में स्त्री-पुरुष दो ही वेद होते हैं। ६. कषायमार्गणा-क्रोध, मान, माया, लोभ को कषाय कहते हैं। प्रत्येक के चार-चार भेद दृष्टान्त द्वारा जीवकाण्ड में कहे हैं। क्रोध के चार भेद-पत्थर की लकीर, पृथ्वी की रेखा, धूलि की रेखा और जल की रेखा के समान। अर्थात् जैसे ये रेखायें होती हैं, जो नहीं मिटतीं या देर-सबेर मिटती हैं, उसी तरह क्रोध कषाय है। मान के चार भेद हैं-पर्वत के समान, हड्डी के समान, काष्ठ के समान और बेंत के समान। विनम्र न होने का नाम मान है। पर्वत कभी नमता नहीं है और बेंत झट नम जाता है। इसी तरह मान के चार प्रकार हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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