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________________ गोम्मटसार जीवकाण्ड इस प्रकार यद्यपि जीवकाण्ड की रचना का आधार जीवसमास रहा है, किन्तु जीवकाण्ड में उससे बहुत अधिक विषय है और वह अपने विषय का पूर्ण ग्रन्थ है । उसमें जीवसमास से सम्बद्ध विषयों के साथ जीवाण में प्रतिपादित विषयों का भी संग्रह है । २८ मूलाचार और जीवकाण्ड मूलाचार जैन मुनि के आचार का एक प्राचीन ग्रन्थ है । उसमें भी कुछ गाथाएँ ऐसी हैं जो जीवकाण्ड में भी हैं। उसके शीलगुणाधिकार में शीलगुणों का वर्णन संख्या, प्रस्तार, अक्षसंक्रमण, नष्ट और उद्दिष्ट रूप में किया गया है और जीवकाण्ड के प्रारम्भ में प्रमाद का वर्णन भी इसी रूप में है । अतः इस अधिकार की गाथा २० से २५ तक जीवकाण्ड में वर्तमान हैं और उनका क्रमांक ३६, ३७, ३८, ३६, ४१, ४२ है । मूलाचार के अन्त में भी एक पर्याप्ति नाम का अधिकार है। उसमें २०६ गाथाएँ हैं । उसमें भी पर्याप्ति, योनि, वेद, लेश्या, जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, लेश्या, कुल आदि का वर्णन है । सम्भवतया अहिंसा धर्म के पालक मुनि को जीव रक्षा के लिए जीवों के उत्पत्तिस्थानादि का जानना आवश्यक होने से इस आचार-विषयक ग्रन्थ के अन्त में इन सबका वर्णन किया है। फलतः इस प्रकारण की भी कुछ गाथाएँ जीवकाण्ड में हैं। किन्तु उन्हें आचार्य नेमिचन्द्र ने मूलाचार से संगृहीत किया है; ऐसा निर्णयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। बहुत-सी गाथाएँ परम्परा से भी प्रवर्तित चली आती हैं । जीवकाण्ड और संस्कृत पंचसंग्रह अमितगति का संस्कृत 'पंचसंग्रह' प्राकृत 'पंचसंग्रह' को ही आधार बनाकर रचा गया । किन्तु उसमें ऐसे भी विषय संगृहीत हैं जो पंचसंग्रह में नहीं हैं; किन्तु 'गोम्मटसार' में हैं । यहाँ हम उसके केवल जीव समास अधिकार को लेंगे । १. जीवसमास में गुणस्थान में औदायिकादि भावों का कथन नहीं है, किन्तु जीवकाण्ड में है । संस्कृत पंचसंग्रह में ५२ आदि श्लोकों में यह कथन है । २. जीवसमास में गुणस्थानों में जीवों की संख्या का कथन नहीं है। जीवकाण्ड के सम्यक्त्व मार्गणाधिकार में है । संस्कृत पंचसंग्रह में इसी प्रकरण में उसे ले लिया है। ३. जीवसमास में जीवसमास के भेदों का वर्णन एक से लेकर उन्नीस तक नहीं है। जीवकाण्ड में है । संस्कृत पंचसंग्रह में भी श्लोक १२० में यह कथन है । ४. जीवसमास में सान्तर मार्गणाओं का कथन नहीं है; जीवकाण्ड में है। संस्कृत पंचसंग्रह में भी श्लोक १३४ - १३५ में यह कथन 1 ५. जीवसमास के काय मार्गणाधिकार में त्रसों का निवासस्थान नहीं कहा है; जीवकाण्ड में कहा है। संस्कृत पंचसंग्रह में भी श्लोक १६१ में यह कथन है । ६. जीवसमास के योगमार्गणाधिकार में दस प्रकार के सत्यवचनों को नहीं गिनाया है; जीवकाण्ड में गिनाया है। संस्कृत पंचसंग्रह में भी श्लोक १६६ - १७० में यह कथन आया है। इसी प्रकारण में जीवसमास में आहारक शरीर के आकारादि का वर्णन नहीं है; जीवकाण्ड में है। संस्कृत पंचसंग्रह में भी श्लोक १७६ - १७७ में यह कथन है 1 इससे स्पष्ट है कि अमितगति के सामने जीवकाण्ड वर्तमान था। अमिगति ने अपना पंचसंग्रह वि. सं. १०७० में पूर्ण किया था। इससे लगभग तीन दशक पहले 'गोम्मटसार' की रचना हो चुकी थी और अमितगति ने अपने पंचसंग्रह की रचना 'उसका उपयोग किया है। पंचसंग्रह के शेष प्रकरण कर्मविषयक चर्चा से सम्बद्ध हैं; अतः कर्मकाण्ड के साथ उनकी तुलना कर्मकाण्ड के संस्करण में की जायेगी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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