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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २२९ कायस्थिति पुट्टिदुदा निगोदकायस्थितिये बुदेत दोडे ॥ ॥निगोदशरीरस्वरूपदिदं परिणमिसिद पुद्गलस्कंधंगळ तत्स्वरूपमं पत्तुविडदेनितु कालमिर्गुवा कालमं निगोदकायस्थितिय दु कैकोळ्वुदेके दोड निगोदजीवंगळ्गे निगोदत्वपरित्यागकालमादोडदुत्कृष्टदिदं द्वयर्द्धपुद्गलपरावर्तप्रमितकालमप्पददनंतमप्पुरिदमदिल्लि कैकोळल्पडदु । आ निगोदकायस्थिाियदं मेलसंख्यातवर्गस्थानंगळं नडेदु नडदु यथाक्रमदिदं वर्गशलाकाद्धच्छेद प्रथममूलंगळपुट्टिदुवा प्रथममूल- ५ मनोम वगंगोळल् योगोत्कृष्टाविभागप्रतिच्छेदप्रमाणं पुट्टिदुदायोगोत्कृष्टाविभागप्रतिच्छेदमें बुदे ते दोर्ड जगच्छेणिघनप्रमाण कजीवप्रदेशंगळोळ कर्मनोकर्मपर्य्यायपरिणमनयोग्यकार्मणवर्गणाहारवर्गणारूप पदगलपिडके तत्तत्पर्यायपरिणमन दोळ प्रकृतिप्रदेशबंधनिमि शक्तियं योगमें बुदा योगविकल्पस्थानंगळं जगच्छेण्यसंख्यातैकभागप्रमाणंगळप्पुवq। चयाधिकं गळागुत्तं पोगि सर्वोत्कृष्टस्थानंगताविभागप्रतिच्छेदप्रमाणमें बुदत्यं । अल्लिदं मेलसंख्यातवर्ग- १० स्थानत्वमं बिट्टनंतानंतवर्गस्थानंगळं नडेदु केवलज्ञानचतुर्त्यमुलघनाघनं पुट्टिदुदिदुर्बु केवलज्ञानप्रथममूलमुमं तुरीयमूलमुमं गुणिसिद राशिप्रमाणमक्कुमिदे द्विरूपघनाघनाधारंगवस्थानमक्कुं। किं बहुना : त्यजनेन अवस्थानकालः, न तु निगोदजीवानां उत्कृष्टावस्थानकालः, तस्य द्वयर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमितत्वात् । ततः असंख्यातानि वर्गस्थानानि गत्वा गत्वा वर्गशलाकाराशिः अर्धच्छेदराशिः प्रथममूलम् । तस्मिन्नेकवारं १५ वगिते योगस्य चतुःस्थानवृद्धिंगतश्रेण्यसंख्येयभागमात्रेण उत्कृष्टस्य अविभागप्रतिच्छेदराशिरुत्पद्यते । कः सः ? कर्मनोकर्मवर्गणानां सर्वात्मप्रदेशेषु प्रकृतिप्रदेशबन्धयोहंतुः । ततोऽनन्तानन्तवर्गस्थानानि गत्वा केवलज्ञानस्य चतुर्थवर्गमलघनाघनः । स च तस्य प्रथमचतुर्थवर्गमूलगुणनलब्धमात्रः । अयमेव अस्याः धाराया अन्तः । द्विरूपवर्गधारायां इष्टस्थाने यो यो राशिदश्यते अस्यां तत्स्थाने तत्सदृशाः नव नव राशिगुणनलब्धमात्राः सन्ति । अस्याः स्थानविकल्पाः केवलज्ञानस्य चतुरूपोनवर्गशलाकामात्राः के व-४। एवं चतस्र एव धारा २० निगोद जीव निगोदपर्यायमें जितने उत्कृष्ट काल तक रहें,उसे निगोदकायस्थिति नहीं लेगें क्योंकि उसका काल ढाई पुद्गल परावर्तन है जो अनन्त है। उससे असंख्यात-असंख्यातवर्गस्थान जाकर उत्कृष्ट योगस्थानोंके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी वर्गशलाकाराशि, अर्धच्छेद राशि और प्रथम वर्गमूल उत्पन्न होता है। उसमें एक बार वर्ग करनेपर जो चतुःस्थान वृद्धिको लिये हुए श्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान हैं,उनमें जो उत्कृष्ट योगस्थान है, २५ उनके अविभागी प्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है । वे योगस्थानोंके अविभागी प्रतिच्छेद जीवके समस्त प्रदेशोंमें कर्म और नोकर्मपर्यायरूप परिणमनेके योग्य वर्गणाओंमें प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धके कारण होते हैं । उससे अनन्तानन्त वर्गस्थान जाकर केवलज्ञानके चतुर्थ वर्गमूलके घनका घन आता है । वह केवलज्ञानके प्रथम वर्गमूल और चतुर्थ वर्गमूलको गुणा करनेपर जो लब्ध आता है.उतना मात्र है। यही द्विरूप घनाघनधाराका अन्तस्थान है। द्विरूपवर्ग- ३० धारामें जिस स्थानमें जो राशि होती है, इस धारामें उस स्थानमें उस राशिको नौ जगह स्थापित करके परस्पर में गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो,उतनी राशि होती है । इस धाराके सब स्थान केवलज्ञानकी वर्गशलाकाके प्रमाणसे चार कम होते हैं। इस तरह यहाँ चार ही धाराओंका कथन किया है। शेष समधारा आदि दस धाराएँ यहाँ उपयोगी न होनेसे नहीं १. बत्रेषत्कृ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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