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________________ २४ गोम्मटसार जीवकाण्ड 'गोम्मटसार' जीवकाण्ड के तीन संस्करण प्रकाशित हुए हैं। गांधी नाथारंग बम्बई द्वारा प्रकाशित संस्करण में मूल गाथाएँ और उनकी संस्कृत छाया मात्र है। संस्कृत में गाथाओं की उत्थानिका भी है। रायचन्द शास्त्रमाला बम्बई से प्रकाशित संस्करण में पं. खूबचन्दजी रचित हिन्दी टीका भी है। ये दोनों संस्करण पुस्तकाकार हैं। गांधी हरिभाई देवकरण ग्रन्थमाला से प्रकाशित शास्त्राकार संस्करण में मूल और छाया के साथ दो संस्कत टीकाएँ तथा पं. टोडरमल रचित ढंढारी भाषा में टीका है। पहले दो संस्करणों में गाथा संख्या ७३३ है, किन्तु प्रथम मूल संस्करण में दूसरे से एक गाथा जिसका नम्बर ११४ है, अधिक है, यह गाथा दूसरे संस्करण में नहीं है। फिर भी गाथा संख्या बराबर होने का कारण यह है कि प्रथम मूल संस्करण में दो गाथाओं पर २४७ नम्बर पड़ गया है। अतः गाथा संख्या ७३४ है। तीसरे संस्करण में गाथा संख्या ७३५ है। इसमें एक गाथा बढ़ने का कारण यह है कि गाथा नं. ७२६ दो बार आयी है और उसपर क्रम से ७२६,७३० नम्बर पड़ गया है। अतः जीवकाण्ड की गाथा संख्या ७३४ है। __यह ऊपर लिख आये हैं कि 'गोम्मटसार' एक संग्रह ग्रन्थ है। उसके प्रथम भाग जीवकाण्ड का संकलन मुख्य रूप से 'पंच संग्रह' के जीवसमास अधिकार तथा षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण के सत्प्ररूपणा और द्रव्य प्रमाणानुगम अधिकारों की धवला टीका के आधार पर किया गया है। _ 'जीवसमास' और 'जीवकाण्ड' दोनों का विषय एक है। दोनों में गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं का कथन है। फलतः दोनों की दूसरी गाथा जिसमें बीस प्ररूपणाओं के नाम गिनाये हैं, समान है और यह गाथा धवला में नहीं है। अतः गोम्मटसार के कर्ता ने इसे जीवसमास से लिया है। इस प्रकार से जीवकाण्ड की रूपरेखा और विषय-वर्णन का आधार जीवसमास रहा है। उसी को सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने षट्खण्डागम की धवला टीका के आधार पर विस्तृत किया है। उसी का यह परिणाम है कि जीवसमास की गाथा सं. २१६ मात्र है और जीवकाण्ड की ७३४ । इस तरह से उन्होंने संक्षिप्त जीवसमास और विस्तृत जीवट्ठाण को अपना कर उसे जीवकाण्ड के मध्यम रूप में इस ग्रथित किया कि जीवकाण्ड की रचना के पश्चात जीवसमास और जीवट्ठाण दोनों को ही भला दिया गया और एकमात्र गोम्मटसार ही सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। यह इसकी रचना के वैशिष्ट्य और इसके रचनाकार की कुशलता का ही परिचायक है। आगे हम देखेंगे कि ग्रन्थकार ने 'जीवसमास' को आधार बनाकर किस प्रकार उसे विस्तृत किया 'जीवसमास' में प्रथम ही गुणस्थान का स्वरूप और गणस्थानों के नाम तीन गाथाओं से कहकर प्रत्येक गुणस्थान का स्वरूप क्रम से कहा है। इन गाथाओं का क्रमांक ३, ४, ५ है। किन्तु जीवकाण्ड में इनका क्रमांक ८, ६, १० है। इस तरह जीवकाण्ड में पाँच गाथाएँ बढ़ गयी हैं। यह धवला या सिद्धान्त ग्रन्थों की देन है। सिद्धान्त में कथन की दो शैलियाँ हैं-ओघ और आदेश या संक्षेप और विस्तार । गुणस्थानों में कथन को ओघ या संक्षेप कहते हैं और मार्गणाओं में कथन को आदेश या विस्तार कहते हैं।। 'जीवसमास' में गा. ६, ७, ८ तीन द्वारा प्रथम गुणस्थान का कथन है। इनमें से केवल ६ और ८ नम्बर की गाथा ही जीवकाण्ड में हैं और वहाँ उनका क्रमांक १७ और १८ है। इस तरह ग्यारह गाथाएँ जीवकाण्ड में अधिक हैं। इसका कारण है कि जीवकाण्ड में गुणस्थानों के नामों के पश्चात् बतलाया है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उदय, उपशम, क्षयोपशम आदि को लेकर किस गुणस्थान में कौन भाव होते हैं, क्योंकि संसार के जीवों को जिन चौदह गुणस्थानों में विभाजित किया है, वे गुणस्थान मोह और योग को लेकर ही निर्धारित किये गये हैं। प्रारम्भ के बारह गुणस्थान मोह के उदय, उपशम, क्षयोपशम या क्षय से होते हैं और अन्त के दो योग के भाव और अभाव से होते हैं। यह सब कथन 'जीवसमास' में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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