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________________ ३८० ) णिद्दाणिद्दा - पयला पयला थी गिद्धीणं जहण्णाणुभागसंकामओ को होदि * ? सुमेइंदियो कदD हदसमुप्पत्तियकम्मो अण्णदरएइंदियो बेइ दियो तेइंदियो चउरदियो पंचिदियो वा । कुदो ? जहण्णाणुभागेण सह सुहुमेइंदियस्स बीइंदियाएसु उप्पत्तिसंभवादो । सम्माइट्ठी पसत्थकम्माणुभागं ण हणदि । अध्पसत्याणं भवोग्गहियाणं कम्माणमणुभागसंतकम्मं जिणे वट्टमाणं पि असण्णिसंतकम्मादो अनंतगुणं । एदेण कारणेण सादासादाणं णामस्स पयडीणं अणादियसंतकम्मियाणं णीचागोदस्स च कदहदसमुत्पत्तियसंतकम्मियस्स सुहुमेइंदियस्स जहण्णसंतकम्मादो हेट्ठा बंधमाणस्स जहण्णाभागसंकमो । एइंदियादि पंचिदिए वि एदेसि जहण्णाणुभागसंकमो होदि 5 जहण्णाणुभागसंतकम्मिय सुहुमेइंदियस्स जहण्णाणुभागेण सह बेइंदियादिसुप्पत्तिदंसणादो । छक्खंडागमे संतकम्मं मिच्छत्त- अट्ठकसायाणं पि सुहुमेइंदियम्हि चेव कदहदसमुप्पत्तियकम्मम्हि जहण्णाणुभागसंकमो । सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंकामगो को होदि ? जो निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिके जघन्य अनुभागका संक्रामक कौन होता है ? जिसने हतसमुत्पत्तिक कर्मको किया है ऐसा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव उनके जघन्य अनुभागका संक्रामक होता है । इसका कारण यह है कि जघन्य अनुभागके साथ सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवकी उत्पत्ति द्वीन्द्रिय आदि जीवोंमें सम्भव है । सम्यग्दृष्टि जीव प्रशस्त कर्मोंके अनुभागका घात नहीं करता है । भवोपगृहीत अप्रशस्त कर्मोंका अनुभागसत्कर्म जिन भगवान् में वर्तमान होकर भी असंज्ञीके सत्कर्म से अनन्तगुणा होता है । इस कारण सातावेदनीय, असातावेदनीय, अनादिसत्कर्मक नामप्रकृतियों और नीचगोत्रका जवन्य अनुभागसंक्रम हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मिक होकर जघन्य सत्कर्मसे नीचे बांधनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियके होता है । एकेन्द्रियको आदि लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों में भी इनके जघन्य अनुभागका संक्रम होता है, क्योंकि, जघन्य अनुभागसत्कर्मक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवकी जघन्य अनुभागके साथ द्वीन्द्रियादि जीवों में उत्पत्ति देखी जाती है । मिथ्यात्व और आठ कषायों का भी जघन्य अनुभाग संक्रम हतसमुत्पत्तिककर्मको करनेवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके ही होता है । सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागका संक्रामक * अ-काप्रत्योः ' संक्रमो होदि', ताप्रती ' सकमो ( को ) होदि ' इतिपाठः । D ताप्रतौ ' सुहुमेई - दियकद-' इति पाठ: । सम्मट्ठी न हणइ सुभाणुभागे। क प्र. २- ५६. केवलिणो णंतगुणं असणओ सेस असुभाणं । क. प्र. २-५५. Q सेसाण सुम हयसतकम्मिगो तस्स हेटुओ जाव | बंधइ तावं एगिदिओ व गिदिओ वावि ।। क प्र. २- ५९. उक्तशेषाणं शभानामशुभानां वा प्रकृतीनां सप्तनवतिसंख्यानां यः सूक्ष्मैकन्द्रियो वायुकायिकोऽग्निकायिको वा हुनकर्मा - हतं विनाशितं प्रभूतमनुभागसत्कर्म येन स हतकर्मास तस्यात्म-सत्कस्यानुभागसत्कर्मणोऽधस्तात् ततः स्तोकतरमित्यर्थः । अनुभाग तावद् बध्नाति यावदेकेन्द्रियस्तस्मिन्नन्यस्मिन् वा एकेन्द्रियभवे वर्तमानोऽनेकेन्द्रियो वेति स एव हतसत्कर्मा एकेन्द्रियोऽन्यस्मिन् द्वीन्द्रियादिभत्रे वर्तमानो यावदन्यं बृहत्तरमनुभागं न बध्नाति तावत्तमेव जघन्यमनुभागं संक्रमयतीति । मलय. * मिच्छत्तस्स जहण्णाण भागसंकामओ को होइ ? सुहुमस्स हृदममुप्पत्तिकम्मेण अण्णदरो । एवंदिओ वा वेइंदिओ वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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