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________________ ५२४ ) छक्खंडागमे संतकम्म अंगोवंग-बंधण-संघादाणं च छसंठाण-छसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थापसत्थविहायगइ-अपज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह दूभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिण-णीचागोदाणं संतकम्मं कस्स ? चरिमसमयभवसिद्धिय मोत्तूण संसारत्थस्स सव्वस्स । तस-बादर-पज्जत्त-सुभगादेज्जजसकित्ति-उच्चागोदाणं संतकम्मं कस्स ? अण्णदरस्स संसारावत्थस्स । तित्थयरणामाए संतकम्मं कस्स? सम्माइद्विस्स मिच्छाइटिस्स वा जाव चरिमसमयभवसिद्धियादो त्ति । एवं सामित्तं समत्तं । ___ एयजीवेण कालो अंतरं, णाणाजीवेहि भंगविचओ कालो अंतरं, सण्णियासो च सामित्तादो साहेदूण भाणियव्वो। एत्तो अप्पाबहुअं दुविहं सत्थाण-परत्थाणप्पाबहुअभेएण। तत्थ परत्थाणप्पाबहुअम्मि पयदं- सव्वत्थोवा आहारसरीरसंतकम्मिया। सम्मत्तसंतकम्मिया असंख० गुणा। सम्मामिच्छत्तस्स संतकम्मिया विसेसाहिया । मणुस्साउअस्स संतक० असंखे० गुणा । णिरयाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । देवाउअस्स संतक० असंखे० गुणा । देवगइणामाए संतक० असंखे० गुणा। णिरयगइणामाए संतक. विसेसा० । वेउव्वियसरीरणामाए संतक० विसेसा० । उच्चागोदस्स संतक० अणंतगुणा । मणुसगइणामाए संतक० अंगोपांग, बन्धन और संघातका, छह संस्थान, छह संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र; इनका सत्कर्म किसके होता है ? इनका सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती भव्य सिद्धिकको छोडकर सब संसारी जीवोंके रहता है। बस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशकीति और उच्चगोत्रका सत्कर्म किसके होता है ? इनका सत्कर्म अन्यतर संसारी प्राणीके होता है। तीर्थकर नामकर्मका सत्कर्म किसके होता है ? उसका सत्कर्म अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक तक सम्यग्दष्टि और मिथ्यादष्टिके भी होता है। इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हआ। एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर और संनिकर्षका कथन स्वामित्वसे सिद्ध करके करना चाहिये । यहां अल्पबहत्व दो प्रकारका है-- स्वस्थान अल्पबहत्व और परस्थान अल्पबहत्व । उनमें परस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है- आहारशरीरसत्कमिक जीव सबसे स्तोक हैं। सम्यक्त्वप्रकृतिसत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कमिक विशेष अधिक है। मनुष्यायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं। नारकायुके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। देवायुके सत्कर्मिक असंख्यातगुणे हैं। देवगति नामकर्मके सत्कमिक असंख्यातगुणे हैं। नरकगति नामकर्म के सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। वैक्रियिकशरीर नामकर्मके सत्कर्मिक विशेष अधिक हैं। उच्चगोत्रके सत्कमिक अनन्तगुणे हैं। मनुष्यगति नामकर्मके सर्मिक विशेष अधिक हैं। तिर्यगायुके Jain Educatiorte का प्रा. ७, ८. ९. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001815
Book TitleShatkhandagama Pustak 16
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1995
Total Pages348
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size8 MB
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