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________________ ५०२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ६, ६४४ अपज्जत्तणिव्वत्ति ति ण घडदे ? ण एस दोसो, विसयसत्तमिमस्सिदण सुत्तपत्तीदो। पढमतिभागविसए जहणिया अपज्जत्तणिवत्ती होदि त्ति जं भणिदं होदि । ण च विसयसत्तमी असिद्धा, औपश्लेषिकवैषयिकाभिव्यापक इत्यपि । आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः कटाकाशतिलेषु च ।। २३ ।। इति वचनाताअथवा पढमतिभागस्स संखेज्जदिभागो पढमतिभागो विपढमतिभागोणाम 'ग्रामो दग्धः पटो दग्धः' इत्येवमादिषु समुदायेषु प्रवृत्तानां शब्दानामवयवेष्वपि वृत्तिदर्शनात् । मज्झिल्लए तिभाए णत्थि आवासयाणि त्ति भणिदे पढमतिभागस्स संखेज्जा भागा बिदियतिभागो सयलो च एसो मज्झिल्लतिभागो णाम। कथमेदस्स किंचूणदोतिभागस्स मज्झिल्लतिभागववएसो? ण एस दोसो, तिण्णं खंडाणं समविवक्खाभावादो। एत्थ एवं विहे तिभागे मरणजवमज्झ-आउअबंधजवमझ-णिव्वत्तिजवमज्झावासयाणि णत्थि ति भणिदं होदि । उवरिल्लए तिभागे आउअबंधो जवमझं त्ति वुत्ते तदियतिभागे सुहुम-बादरअपज्जत्ताणमाउअबंधोहोदि। सो चेव जवमशं होदि। कुदो? जीवेहि जवमज्झागारेण अवट्ठाणादो। जवस्स मज्झिमपदेसो जवमज्झं त्ति एत्थ ण घेत्तव्वं अधस्तन त्रिभागमें सब जीवोंकी जघन्य अपर्याप्त निर्वृत्ति होती है यह कथन घटित नहीं होता? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विषयरूप सप्तमीका आश्रय लेकर सूत्रकी प्रवति हुई है। प्रथम विभागको विषय करके जघन्य अपर्याप्त निर्वत्ति होती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और विषय सप्तमी असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि कट, आकाश और तिलमें औपश्लेषिक, वैषयिक और अभिव्यापक इस प्रकार आधार तीन प्रकारका कहा है ।। २३ ।। ऐसा वचन हैं । अथवा प्रथम विभागका संख्यातवां भाग भी प्रथम विभाग कहलाता है। यथा- ग्राम जला, वस्त्र जला इत्यादि प्रयोगोंके करने पर समुदायमें प्रवृत्त हुए शब्दोंकी वृत्ति अवयवों में भी देखी जाती है। मध्यके त्रिभागमें आवश्यक नहीं है ऐसा कहनेपर प्रथम विभागका संख्यात बहुभाग और पूरा द्वितीय विभाग यह सब मध्यका त्रिभाग कहलाता है। शंका - कुछ कम दो त्रिभागकी मध्यका त्रिभाग संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तीनों खण्ड समान होते है ऐसी विवक्षा नहीं है। यहां इस प्रकारके त्रिभागमें मरणयवमध्य, आयुबन्धयवमध्य और निर्वृत्तियवमध्य ये आवश्यक नहीं हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उपरिम विभागमें आयुबन्ध यवमध्य है ऐसा कहने पर उसका आशय हैं कि तीसरे त्रिभागमें सूक्ष्म अपर्याप्त और बादर अपर्याप्त का आयुबंध होता है और वही यवमध्य होता है, क्योंकि जीव यवमध्यके आकारसे अवस्थित हैं। यहां पर यवमध्य पदसे यवका मध्यम प्रदेश ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए किन्तु यवका मध्य अर्थात ( अ० प्रतौ । किचण तिभागस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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