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________________ ५, ६, १६७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए अप्पाबहुअपरूवणा ( ३०१ सणियाणवादेण सण्णीणं पुरिसवेवमंगो । असण्णी० ओघं । णेव सण्णिअसणि तिसरीराणं णाणेगजीवे ५० उभयदो पत्थि अंतरं। आहाराणुवादेण आहारिणो तिसरीरा चदुसरीरा ओघं । गवरि चदुसरीराणं उक्कस्सेण अंगलस्स असंखेज्जविभागो। अणाहाराणं कम्मइयमंगो। गवरि जम्हि वासपुधतमंतरं तम्हि छम्मासा । व मंतराणयोगद्दारं समत्तं । मावाणगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण बिसरीरतिसरीर-चदुसरीराणं को भावो ? ओवइओ भावो । एवं यव्वं जावं अणाहारए ति। एवं भावाणयोगद्दारं समत्तं । अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आवेसेण य ।१६८। कुदो ? ववडिय-पज्जवट्टियभेवेण दुविहाणं चेव सिस्साणमवलंभादो। ओघेण सव्वत्थोवा चवुसरीरा ॥ १६९ ॥ वो ? पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तघणंगुलेहि गणिदजगसेडिपमाणत्तादो। संज्ञी मार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंका भंग पुरुषवेदी जीवोंके समान है। असंज्ञियोंका भंग ओघके समान है। न संज्ञी न असंज्ञी जीवोंमें तीन शरीरवाले जीवोंका नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा उभयतः अन्तरकाल नहीं है। ___ आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि चार शरीरवालोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनाहारकोंका भंग कार्मणकाययोगियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि जहां वर्षपृथक्त्व अन्तर है वहां छह महीना अन्तर कहना चाहिए । विशेषार्थ-- अयोगकेवलीका उत्कृष्ट अन्तर छह माह है, इसलिए अनाहारकोंमें तीन शरीरवालोंका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। इस प्रकार अन्तरानुयोगद्वार समाप्त हुआ। भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कोन भाव है ? औदयिक भाव है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार भावानुयोगद्वार समाप्त हुआ। अल्पबहुत्वानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आवेश । १६८ । क्योंकि, द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे दो प्रकारके ही शिष्य उपलब्ध होते हैं । ओघसे चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं ॥ १६९ ।। क्योंकि, ये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण घनांगुलोंसे गुणित जगश्रेणिप्रमाण होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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