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________________ बंधणाणुयोगद्दारे सेसाणुयोगद्दारपरूवणा ( १७३ धणियवग्गणाओ लभंति । उक्कस्तपत्तैयसरीरवग्गणाए वि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तसरिसधणियवग्गणाओ लभंति । पुणो जवमज्झस्स हेहोवरि विसेसाहियहीणवग्गणाओ* घेत्तूण जवमज्झवग्गणपमाणेण कदे तिण्णिगुणहाणिमेत्तजवमज्झं होदि । णवरि सुहमणिगोदसरिसधणियजवमज्झवग्गणाहितो पत्तेयसरीरसरिसणियजवमझवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ । एत्थ गुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। तेण कारणेण सुहमणिगोदवग्गणाहितो पत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जगणाओ त्ति सिद्धं । अथवा गुणगारो असंखेज्जा लोगा । बादरणिगोदवग्गणाहितो सुहमणिगोदवग्गणाणमसंखेज्जगुणतं होदु णाम; बादरणिगोदजीवेहितो सुहमणिगोदजीवाणमसंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। किंतु एदं ण जुज्जदे सुहमणिगोदवग्गणाहितो पत्तेयसरीरवग्गणाओ असंखेज्जगुणाओ त्ति । कुदो ? असंखेज्जलोगमेतपत्तेयसरीरजीवेहितो सुहमणिगोदजीवाणमणंतगुणत्तदंपणादो। ण एस दोसो; अणंताणंतजोवेहि सव्वजीवरासोए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि एगसुहमणिगोदवग्गणणिप्पत्तीदो। एग-दो-तिणिआदि जा उक्कस्सेण पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवेहि पत्तेयसरीराणमेगवग्गणुप्पत्तिदंसणादो ? असंखेज्जगुणत्तं ण विरुज्झदे । सबमेदं कुदो णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो । प्रायोग्य यवमध्यमें भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण सदश धनवाली वर्गणायें प्राप्त होती हैं । उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गगामें भी आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण सदृश धनवाली वर्गणायें प्राप्त होती हैं। पुन: यवमध्यके नीचे और ऊपर क्रमसे विशेष अधिक और विशेष हीन वर्गणाओंको ग्रहण कर यवमध्य वर्गणाके प्रमाणसे करने पर तीन गुणहानिप्रमाण यवमध्य होता है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म निगोद सदृश धनवाली यवमध्यवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीर सदृश धनवाली यवमध्य वर्गणायें असंख्यातगुणी हैं। यहां पर गुणकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस कारणसे सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगुणी है यह सिद्ध हुआ। अथवा गुणकार असख्यात लोकप्रमाण है। शंका- बादरनिगोदवर्गणाओंसे सूक्ष्मनिगोदवर्गणायें असंख्यातगणी होवें, क्योंकि, बादर निगोद जीवोंसे सूक्ष्म निगोद जीव असंख्यातगुणे पाये जाते हैं । किन्तु सूक्ष्म निगोदवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीरवर्गणायें असंख्यातगुणी हैं यह बात नहीं बनती, क्योंकि, असंख्यात लोकप्रमाण प्रत्येकशरीर जीवोंसे सूक्ष्म निगोद जीव अनन्तगणे देखे जाते हैं ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सब जीवराशिसे असंख्यातवें भागप्रमाण अनन्तानन्त जीवोसे एक सूक्ष्म निगोदवर्गणाकी उत्पत्ति होती है । तथा एक, दो और तीनसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंसे प्रत्येकशरीर एक वर्गणाकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंसे प्रत्येकशरीरवर्गणाओंके असंख्यातगुणे होने में कोई विरोध नहीं आता। शंका-यह सब किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्यों के विरोध रहित वचनोंसे जाना जाता है। *ता प्रतो 'विसेसाइियऊणवग्गणाओ ' इति पाठः 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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