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________________ ४८) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ४, २४. दुमत्थवीयरायाणं ति भणिदे उवसंत खीणकसायाणं गहणं, अण्णत्थ छदुमत्थेसु चीरायत्ताणुवलंभादो । सजोगिकेवलीणं वा त्ति वयणेण छदुमत्थणिद्देसेण वीयरागेहिंतो ओसारिकेवलीणं गहणं कदं । एत्थ ईरियावहकम्मस्स लक्खणं गाहाहि उच्चदे । तं जहाअप्पं बादर मवुअं बहुअं ल्हुक्खं च सुक्किलं चेव । मंदं महव्वयं पिय सादब्भहियं च तं कम्मं ॥ २ ॥ गहिदमगहिदं च तहा बद्धमबद्धं च पुट्ठपुट्ठं च । उदिदादिदं वेदिदमवेदिदं चेव तं जाणे ॥ ३ ॥ णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदीरिदं चेव होदि गायव्वं । अणुदीरिदं ति य पुणो इरियावहलक्खणं एदं ॥ ४ ॥ एत्थ ताव पढमगाहाए अत्थो वुच्चदे । तं जहा - कसायाभावेण द्विदिबंधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयबिदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छंतस्स जोगेणागदपोग्गलकम्मक्खंधस्स द्विदिविरहिदएसमए वट्टमाणस्स कालणिबंधणअप्पत्तदंसणादो इरियावह कम्ममप्पमिदि भणिदं । कम्मभावेण एग समयमवद्विदस्स कधमवट्ठाणाभावो भण्णदे ? ण, 'छदुमत्थवीयरायाणं' ऐसा कहनेपर उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंका ग्रहण होता है, क्योंकि, अन्य छद्मस्थ जीवोंमें वीतरागता नहीं पायी जाती । 'सजोगिकेवलीणं' इस वचनसे जो छद्मस्थ निर्देशके साथ वीतराग होते हैं उनसे पृथग्भूत केवलियोंका ग्रहण किया है । अब यहां ईर्यापथकर्मका लक्षण गाथाओं द्वारा कहते हैं । यथा वह ईर्यापथकर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रुक्ष है, शुक्ल है, मन्द अर्थात् मधुर है, महान् व्ययवाला है और अत्यधिक सातरूप है ॥ २ ॥ उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनुदित और वेदित होकर भी अवेदित जानना चाहिये ॥ ३ ॥ वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है और उदीरित होकर भी अनुदीरित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्मका लक्षण है || ३ | यहां सर्वप्रथम पहली गाथाका अर्थ कहते हैं। यथा- जो कषायका अभाव होनेसे स्थितिबन्धके अयोग्य है, कर्मरूपसे परिणत होनेके दूसरे समय में ही अकर्मभावको प्राप्त हो जाता है, और स्थितिबन्ध न होनेसे मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है; ऐसे योगके निमित्तसे आये हुए पुद्गल कर्मस्कन्ध में काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है । इसीलिये ईर्यापथकर्म अल्प है, ऐसा कहा है । शंका- जब कि ईयपथ कर्म कर्मरूपसे एक समय तक अवस्थित रहता है, तब उसके अवस्थानका अभाव क्यों बतलाया ? * ताप्रती ' महवयं' इति पाठः । ताप्रतौ ' ट्ठिदिबंधापोड ( ह ) स्स इति पाठः । 4 कम्माभावएग-' इति पाठः । Jain Education International अप्रतो 'द्विदिबंधापोदस्स', आप्रतो 'द्विदिबंधाषोडस', प्रतिषु ' अपत्त' इति पाठः । आ-ताप्रत्योः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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