SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ३, २२. ) फासाणुओगद्दारे ठवणफासो (२३ अवट्ठाणं चे- ण, अगोहणशम्मियआयासमाहप्पेण तेसिमवट्ठाणविरोहाभावादो? एत्थ परिहारो वच्चद। तं जहा-परमाणू किं सावयवो किम णिरवयवो? ण ताव सावयवो, परमाणुसद्दाहिहेयादो पुधभूदअवयवाणुवलंभादो। उवलंभे वा ण सो परमाणू, अपत्तभिज्जमाणभेद पेरंततादो। ण च अवयवी चेव अवयवो होदि, अण्णपदत्थेणल विणा बहुव्वीहिसमासाणुववत्तीदो संबंधेण विणा संबंधणिबंधण-इं-*पच्चयाणुववत्तीदो वा। ण च परमाणुस्स उद्घाधोमज्झभागाणमवयवत्तमत्थि, तेहितो पुधभूवपरमाणुस्स अवयवविसण्णिदस्स अभावादो। एदम्हि गए अवलंबिज्जमाणे सिद्धं परमाणुस्स णिरवयवत्तं। संजुत्ताणमसंजुत्ताणं च परमाणुपमाणत्तणेण उवलब्भमाणपोग्गलक्खंधाणमभावप्पसंगादो अवगयावयवपरमाणुदेसपासो चेव दव्वट्ठियबलेण सव्वफासो त्ति परूविदो अखंडाणं परमाणूणमवयवाभावेण सव्वफासस्सेव संभवदंसणादो। अधवा दोण्णं परमाणूणं देसफासो होदि, थूलक्खंधुप्पत्तीए अण्णहा अणुववत्तीदो। सव्वफासो वि होदि, परमाणुम्मि परमाणुस्स सव्वप्पणा पवेसाविरोहादो। ण च पविसंतपरमाणुस्स परमाणू ठीक नहीं है, क्योंकि अवगाहन धर्मवाले आकाशके माहात्म्यसे अनन्त पुद्गलोंका असंख्यप्रदेशी लोकाकाशमें अवस्थान मानने में कोई विरोध नहीं आता? समाधान- यहां उक्त शंकाका परिहार करते हैं । यथा-परमाणु क्या सावयव होता है या निरवयव? सावयव तो हो नहीं सकता, क्योंकि परमाणु शब्दके वाच्यरूप उससे अवयव पृथक नहीं पाये जाते । यदि उसके पृथक् अवयव माने जाते हैं तो वह परमाणु नहीं ठहरता, क्योंकि जितने भेद होने चाहिये उनके अन्तको वह अभी नहीं प्राप्त हुआ है। यदि कहा जाय कि अवयवीको ही हम अवयव मान लेंग सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि एक तो बहुब्रीहि समास अन्यपदार्थप्रधान होता है, कारण कि उसके बिना वह बन नहीं सकता। दूसरे, सम्बन्धके बिना सम्बन्धका कारणभूत ‘णिनि' प्रत्यय भी नहीं बन सकता । यदि कहा जाय कि परमाणुके ऊर्ध्व भाग, अधोभाग और मध्य भाग रूपसे अवयव बन जायेंगे सो भी बात नहीं है, क्योंकि इन भागोंके अतिरिक्त अवयवी संज्ञावाले परमाणुका अभाव है । इस प्रकार इस नयके अवलम्बन करनेपर परमाणु निरवयव है, यह बात सिद्ध होती है। संयुक्त पुद्गलस्कंध और असंयुक्त परमाणु प्रमाण उपलब्ध होनेवाले पुद्गलस्कन्धोंका अभाव न प्राप्त हो इसलिये अवयव रहित परमाणुओंका देशस्पर्श ही यहां द्रव्याथिकनयके बलसे सर्वस्पर्श है ऐसा कहा है, क्योंकि अखण्ड परमाणओंके अवयव नहीं होने के कारण उनका सर्वस्पर्श ही सम्भव दिखाई देता है। अथवा दो परमाणुओंका देशस्पर्श होता है, अन्यथा स्थूल स्कन्धोंकी उत्पत्ति नहीं बन सकती। उनका सर्व. स्पर्श भी होता है, क्योंकि एक परमाणुका दूसरे परमाणु में सर्वात्मना प्रवेश होने में कोई विरो नहीं आता। पर इसका यह अर्थ नहीं कि प्रवेश करनेवाले परमाणुको दूसरा परमाणु प्रतिबन्ध B अप्रतौ 'भेदे परतत्तादो', ताप्रतौ 'भेदे पेरंतत्तादो' इति पाठः। ॐ प्रतिषु 'पदत्तेण' इति पारः । *ताप्रती 'णिबंध णाई' इति पाठ. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy