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________________ ५,५, ११६. ) अणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा जं तं आणुपुविणामं तं चउब्विहं निरयगइपाओग्गाणुपुविणामं तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्विणामं मणुसगइपाओग्गाणुपुविवणामं देवगइपाओग्गाणुपुव्विणामं चेदि ।। ११४ ॥ सुगममेदं सुतं । संपहि गिरयगइपाओग्गाणुपुब्विणामाए उत्तरपयडिपमाणपरूवणटुमुत्तरसुत्तं भणदिनिरयगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए केवडियाओ पयडीओ ? । ११५ । ( ३७१ सुगमं । निरयगइ पाओग्गाणुपुब्विणामाए पयडीओ अंगुलस्स असंखेज्जबिभागमेत्त बाहल्लाणि तिरियपदराणि सेडीए असंखेज्जविभाग मेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदाओ । एवडियाओ पयडीओ ।। ११६ ।। मुक्कgoवसरीरस्स अगहिदुत्तसरीरस्स जीवस्स अट्ठकम्मक्खंधेहि एयत्तमुवगयस्स हंतधवलविस्सासोवचएहि उवचियपंचवण्णक मक्खंधंतस्स* विसिट्टमुहागारेण जीवपसाणं अणुपरिवाडीए परिणामो आणुपुन्वी णाम । कि मुहं णाम ? जीवपदेसाणं विसिठाणं । जो आनुपूर्वी नामकर्म है वह चार प्रकारका है- नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपुर्वी और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म ॥ ११४ ॥ यह सूत्र सुगम है । अब नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियों के प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नाम कर्मको कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। ११५ । यह सूत्र सुगम है । नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यक्प्रतररूप बाल्यको श्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करनेपर जो लब्ध आवे उतनी हैं। उसकी इतनी मात्र प्रकृतियां हैं ॥ ११६ ॥ जिसने पूर्व शरीरको छोड दिया है, किन्तु उत्तर शरीरको ग्रहण नहीं किया है, जो आठ कर्मस्कन्धों के साथ एकरूप हो रहा है, और जो हंसके समान धवल वर्णवाले विस्रसोपचयोंसे उपचित पांच वर्णवाले कर्मस्कन्धोंसे संयुक्त है; ऐसे जीवके विशिष्ट मुखाकाररूपसे जीवप्रदेशों का जो परिपाटीक्रमानुसार परिणमन होता है उसे आनुपूर्वी कहते है । शंका- मुख किसे कहते हैं ? समाधान- जीवप्रदेशोंके विशिष्ट संस्थानको मुख कहते हैं । षट्खं जी. चू. १, ४१. प्रतिषु 'कम्मक्खंधतं तस्स इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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