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________________ ५, ५, ५९. ) अणुओगद्दारे ओहिणाणस्स दव्वखेत्तादिवुढिपरूवणा ( ३०९ मघणमेत्तं होदि । 'कालम्मि असंखेज्जे ' असंखेज्जवासमेत्ते संते ओहिणिबद्धखेत्तं घणागारेण ट्ठइज्जमाणमसंखेज्जे दीव-समुद्दे आयामेण ओट्ठहदि । एवं तिरिक्ख-मणुस्साणं देसोहीए खेत्त-कालपमाणपरूवणा गदा । संपहि णाणाकालं णाणाजीवे च अस्सिदूण दव्वखेत्त-काल-भावाणं बुड्डिक्कम परूवणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि कालो चदुण्ण वुड्ढी कालो भजिदव्वो * खेत्तवुड्ढीए । वुड्ढीए वव्व-पज्जय भजिदव्वा खेत्त-काला दु ।। ८ ।। 'कालो चटुण्णं वुड्ढी' कालश्चतुर्णां वृद्धये भवति । केसि चदुष्णं ? काल-खेत-दव्वभावाणं । काले वडमाणे नियमा दव्व-खेत्त-भावा वि वड्ढति त्ति भणिदं होदि । 'कालो भजिदन्वो खेत्तवुड्ढीए' खेले वडमाणे कालो कयावि वढदि, कयावि णो वढदि । दव्वभावा पुण नियमा वढति, तेस बुड्ढोए विणा खेत्तबुड्ढीए अणुववत्ती दो । 'बुड्ढीए दब्वपज्जय' दव्व - पज्जयाणं बुड्ढीए संतीए खेत्त-कालाणं बुड्ढी भर्याणिज्जा । कुदो ? साभावियादो। दव्ववुड्ढीए पुर्ण नियमा पज्जयवुड्ढी, पज्जयवदिरित्तदव्वाभावादो, पज्जयवुड्ढीए वि नियमा दव्ववुड्ढी, दव्ववदिरित्तपज्जायाभावादो | अत्र श्लोक:आयामघनप्रमाण होता है । कालके असंख्यात अर्थात् असंख्यात वर्ष प्रमाण होनेपर अवधिज्ञान संबंधी क्षेत्र घनरूपसे स्थापित करनेपर असंख्यात द्वीप समुद्रोंके आयामघनप्रमाण होता है । इस प्रकार तिर्यंच और मनुष्योंके देशावधि सम्बन्धी क्षेत्र और कालके प्रमाणका कथन किया । अब नाना काल और नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों वृद्धि क्रमका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- काल चारोंकी वृद्धिके लिए होता है। क्षेत्रकी वृद्धि होनेपर कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती । तथा द्रव्य और पर्यायकी वृद्धि होनेपर क्षेत्र और कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती ॥ ८ ॥ कालो 'चदुण्ण बुड्ढी' अर्थात् काल चारोंकी वृद्धिके लिए होता है । किन चारोंकी ? काल, क्षेत्र, द्रव्य और भावोंकी । कालकी वृद्धि होनेपर द्रव्य, क्षेत्र और भाव भी नियमसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए' क्षेत्रकी वृद्धि होनेपर काल कदाचित् वृद्धिको प्राप्त होता है और कदाचित् वृद्धिको नहीं भी प्राप्त होता है । परन्तु द्रव्य और भाव नियमसे वृद्धिको प्राप्त होते क्योंकि, द्रव्य और भावकी वृद्धि हुए विना क्षेत्रकी वृद्धि नहीं बन सकती । 'वुड्ढीए दव्वपज्जय' अर्थात् द्रव्य और पर्यायोंकी वृद्धि होनेपर क्षेत्र और कालकी वृद्धि होती भी है और नहीं भी होती; क्योंकि, ऐसा स्वभाव हैं । परंतु द्रव्यकी वृद्धि होनेपर पर्यायकी वृद्धि नियमसे होती है; क्योंकि, पर्याय अर्थात् भावके विना द्रव्य नहीं पाया जाता। इसी तरह पर्यायकी वृद्धि होनेपर भी द्रव्यकी वृद्धि नियमसे होती है; क्योंकि, द्रव्यके विना पर्यायका होना असम्भव है । इस विषय में श्लोक है- + ताप्रती 'ओहट्ठदि इति पाठः । * तातो 'भजिदव्वो (व्व ) ' इति पाठः । षट्खं पु९, पू. २९. ताप्रती 'वड्ढति । तेसि वुड्ढीए विणा खेत्तवुड्ढीए ( विणा, खेत्तवुड्ढीए ) ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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