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________________ ३०४) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ५, ५९. मोहिक्खेत्तं तिरिक्ख-मणुस्सगइसंबंधियं परूवियं । संपहि ओहिणिबद्धखेत्तपडिबद्धकालस्स कालणिबद्धखेत्तस्स वा पदुप्पायण?मुत्तरगाहाओ भणदि अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज वो वि संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥४॥ एदिस्से गाहाए अत्थो वुच्चदे। तं जहा- अंगुलं ति वृत्ते पमाणघणंगुलं घेत्तव्यं, देव-गेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साणमुस्सेहपरूवणं मोत्तूण अण्णत्थ पमाणां है। इस प्रकार तिर्यंच और मनुष्यगति सम्बन्धी जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका कथन किया। विशेषार्थ- यहां जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रका विचार करते हुए उसे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी तीसरे समयमें प्राप्त होनेवाली जघन्य अवगाहना प्रमाण बतलाया है। सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके क्षुद्र भव ६०१२ होते हैं । जो जीव इन सब भवोंको क्रमसे धारणकर अन्तिम भवमें दो मोडा लेकर उत्पन्न होता है उसके यह जघन्य अवगाहना होती है और इतना ही अवधिज्ञानका क्षेत्र होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । कितने ही आचार्य इस कथनका इस प्रकार व्याख्यान करते हैं कि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकी जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतने आकाशप्रदेशोंको एक श्रेणिमे स्थापित करनेपर अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र होता। पर यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर एक तो यह क्षेत्र उक्त क्षेत्रसे असंख्यातगुणा हो जाता है और दूसरे इस प्रकारके क्षेत्रमें जघन्य अवधिज्ञानका द्रव्य नहीं जाता। अतः पूर्वोक्त प्रकारसे ही अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र मानना चाहिए और यह कथन इसका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रका अविरोधी भी है। अब अवधिज्ञानके क्षेत्रसे सम्बन्ध रखनेवाले कालका और कालसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रका कथन करने के लिए आगेके गाथासूत्र कहते हैं - ___ जहां अवधिज्ञानका क्षेत्र घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है वहां काल आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। जहां क्षेत्र घनांगलका संख्यातवां भाग है वहां काल आवलीका संख्यातवां भाग है। जहां क्षेत्र घनांगलप्रमाण है वहां काल कुछ कम एक आवलि प्रमाण है । जहाँ काल एक आवलिप्रमाण है वहां क्षेत्र घनां. गुलपृथक्त्व प्रमाण है ॥ ४ ॥ अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं । यथा- अंगुल ऐसा कहनेपर प्रमाणघनांगुल लेना चाहिए, क्योंकि, देव, नारकी तिर्यंच और मनुष्योंके उत्सेधके कथनके सिवा अन्यत्र प्रमाणांगुल म. बं. १, पृ. २१. षट्खं पु. ९, प २४. अगुलमावलियाणं भागमसंखिज्ज दोसु संखिज्जा । अंगलमावलिअंतो आवलिया अंगुलपुहुत्तं नं. सू गा. ५०. ४ उस्सेहअंग लेणं सुराण णर-तिरिय-णारयाणं च । उस्सेहंगलमाणं चउदेवणिकेदगयराणि || दीवोदहि-सेलाण वेदीण णदीण कुंड-जगदीणं । वस्साणं च पमाण होदि पमाणंगुलेणेव । ति. प. १, ११०-११ अवरं सु ओहिखेत्तं उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा। सुहमोगाहणमाणं उवरि पमाणं तु अंगुलयं । गो. जी. ३८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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