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________________ ५,५,४९. ) पर्या अणुओगद्दारे सुदणाणस्स एयट्ठपरूवणा ( २७९ पणारसं १५ । पाहुडसमाससुदणाणस्स वत्तिदुवारेण संखेज्जते संते वि जादिदुवारेण एयतमावण्णस्स जमावारयं कम्मं तं पाहुडसमासाबरणीयं सोलसमं १६ । वत्थुसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तं वत्थुआवरणीयं सत्तारसमं १७ । वत्थुसमाससुदणाणस्स वत्तदुवारेण संखेज्जवियप्पे संते वि जादिदुवारेण एयत्तमावण्णस्स जमावारयं कम्म तं वत्थुसमासावरणीयमद्वारसमं १८ । पुव्वसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं त पुव्वावरणीयमेत्रको गवी सदिमं १९ । पुश्वसमास सुदणाणस्स वत्तिदुवारेण संखेज्ज - विप्पे संते विजादीए एयत्तमावण्णस्स जमावारयं कम्मं तं वीसदिमं पुव्वसमासावरणीयं २० । एवमणुलोमेण सुदणाणस्स वीसदिविधा आवरणपरूवणा परूविदा | एवं विलोमेण वीसदिविधा सुदणाणावरणीयपरूवणा परूवेदव्वा, विसेसाभावादो । जेत्तिया सुदणाणवियप्पा, मदिणाणवियप्पा वि तत्तिया चेव, सुदणाणस्स मदिणाण पुव्वत्तादो । तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स अण्णं परूवणं कस्सामों । ४९ । सुदणाणस्स एयट्ठपरूवणा भणिस्समाणा कधं सुदणाणावरणीयस्स परूवणा होज्ज ? ण एस दोसो, आवरणिज्जसरूवपरूवणाए तदावरणसरूवावगमाविणाभावित्तादी कम्मकारए आवरणिज्जसद्दनिष्पत्तीदो वा । होते हुए भी जो जातिकी अपेक्षा एक प्रकारका है ऐसे प्राभृतसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह प्राभृतसमःसावरणीय नामका सोलहवां आवरण कर्म है | १६ | वस्तु श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह वस्तुश्रुतावरणीय नामका सत्रहवां आवरण कर्म है १७ । व्यक्तिको अपेक्षा संख्यात प्रकारका होनेपर भी जातिकी अपेक्षा जो एक प्रकारका है ऐसे वस्तुसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह वस्तुसमासावरणीय नामका अठारहवां आवरण कर्म है १८ । पूर्व श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह पूर्वश्रुतावरणीय नामका उन्नीसवां आवरण कर्म है १९ । व्यक्तिकी अपेक्षा संख्यात प्रकारका होते हुए भी जातिकी अपेक्षा जो एक प्रकारका है ऐसे पूर्वसमास श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह पूर्वसमासावरणीय नामका वीसवां आवरण कर्म २० । इस प्रकार अनुलोमक्रमसे श्रुतज्ञान के बीस प्रकारके आवरणका कथन किया। इसी विलोमक्रमसे बीस प्रकारके श्रुतज्ञानावरणका कथन करना चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । जिलने श्रुतज्ञानके भेद हैं मतिज्ञानके भेद भी उतने ही हैं, क्योंकि, श्रुतज्ञान ज्ञानपूर्वक होता है । उसी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी अन्य प्ररूपणा करते हैं ।। ४९ ।। शंका- - श्रुतज्ञानके पर्याय नामोंकी प्ररूपणा जो आगे की जानेवाली है वह श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी प्ररूपणा कैसे हो सकती हैं ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आवरणीयके स्वरूपका कथन तावरण के स्वरूपके ज्ञानका अविनाभावी होता है । अथवा कर्म कारकमें आवरणीय शब्दकी निष्पत्ति हुई है, इसलिये कोई दोष नहीं है । अ-आप्रत्योः ' भविस्समाणा ' Jain Education International इति पाठ: 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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