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________________ ५, ५, ४८. ) पडिअणुओगद्दारे सुदणाण वरणीयभेदपरूवणा (२७७ तत्थ सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयस्स जं जहणं लद्धिअक्खरं तस्स णस्थि आवरणं । तदुवरिमस्स पज्जयसण्णिदस्स णाणस्स जमावरणं तं पज्जयणाणावरणीयं । एवम्हादो पक्खेवुतरस्स णाणस्त पज्जयसमाससण्णिदस्त जमावरणं तं पज्जयसमासणाणावरणीयं। एवमणंतभागवडि-असंखज्जभागवड-संखेज्जभागवडि- संखेज्जगुणवडि-असंखज्जगुणवड्डि-अणंतगुणवडिकमेण असंखेज्जलोगमेत्तछट्टाणपमाणाणि पज्जयसमासावरणीयाणि होति । एदाणि सव्वाणि जादीए एयत्तमवणमंति ति पज्जयसमासावरणीयमेक्कं चेव होदि १ । एवं पुविल्लेण सह दोणि सुदणाणावरणीयाणि होति २। अक्ख रसुदणाणस्स जमावारयं कम्मं तमक्खरावरणीयं । एवं तिणि आवरणाणि ३ । पुणो एदस्सुवरिमस्स अक्खरस्स जमावरणीयकम्मं तमक्खरसमासावरणीयं णाम चउत्थमावरणं ४ । अक्खरसमासावरणाणि वत्तिदुवारेण जदि वि संखेज्जाणि तो वि एक्कं चेव आवरणमिदि ताणि गहिदाणि, जादिदुवारेण अगबाह्यके अक्षरोंको भी पूर्वसमासके भीतर परिगणित कर लिया गया है । इसलिये यह विचारणीय हो जाता है कि यहां एसा क्यों किया गया है ? साधारणतया ग्यारह अंग स्वतंत्र माने जाते हैं और बारहवें दृष्टिवाद अंगके पूर्वगत, परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग और चूलिका ये पांच भेद किये जाते हैं। स्वयं वीरसेन स्वामीने अन्यत्र श्रुतका इसी प्रकारसे विभाग किया है । इस लिये यदि क्षयोपशमकी अपेक्षा किये गये श्रुतज्ञानके भेदोंको पूर्वसमास ज्ञानके भीतर लिया जाता है तो ग्यारह अंग व दृष्टिवादके शेष भेद सब संयोगी अक्षरोंके बाहर पड जाते हैं। अंगबाह्यके सम्बन्धमें दो मत मिलते हैं । वीरसेन स्वामीके अभिप्रायानुसार तो इनकी रचना गणधरोंने ही की थी। किन्तु पूज्यपाद स्वामीने अपनी सर्वार्थसिद्धि टीकामें अंगबाह्यकी रचना अन्य आचार्योंके द्वारा की गई बतलाई है। थोडी देरके लिय हमें इस मतभेदको भुलाकर मूल प्रश्नपर आना है, क्योंकि, अगबाह्यके विषयमें तो यह समाधान हो सकता है कि सामायिक आदि मूल अंगबाह्योंकी रचना गणधरोंने की होगी । प्रश्न यहां श्रुतज्ञानके सब भेदोंके विचारका है। इस व्यवस्थाको देखते हुए हमारा तो ऐसा ख्याल है कि श्रुतज्ञानके सब भेदोंमें पूर्वगतको मुख्य मानकर यह प्ररूपणा की गई है । परन्तु पूर्वगतको ही मुख्यता क्यों दी गई है, यह फिर भी ध्यान देने योग्य है। उनमेंसे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका जो जघन्य लब्ध्यक्षर ज्ञान है उसका आवरण नहीं है। उससे आगेके पर्याय संज्ञावाले ज्ञान का जो आवरण है वह पर्यायज्ञानावरणीय है। इससे एक प्रक्षेप अधिक आगेके पर्यायसमास ज्ञानका जो आवरण है वह पर्यायसमासज्ञानावरणीय है । इस प्रकार अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि के क्रमसे असंख्यात लोकमात्र छह स्थान प्रमाण पर्यायसमासज्ञानावरणीय होते हैं । ये सब जातिकी अपेक्षा एक हैं, इसलिये पर्यायसमासज्ञानावरणीय कर्म एक ही है १ । इस प्रकार पूर्वोक्त आवरणके साथ दो श्रुतज्ञानावरण होते हैं २ । अक्षर श्रुतज्ञानका जो आवारक कर्म है वह अक्षरावरणीय है । इस प्रकार तीन आवरण कर्म होते हैं ३ । पुनः इससे आगेके अक्षरका जो आवरणीय कर्म है वह अक्षरसमासावरणीय नामका चौथा आवरण कर्म है ४। अक्षरसमासावरणीय यद्यपि व्यक्तिकी अपेक्षा संख्यात हैं तो भी एक ही आवरणकर्म है, ऐसा समझकर वे ग्रहण ताप्रतो ' ताणि (ण) गहिदाणि ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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