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________________ २३० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, २९. जं तं ईहावरणीयं णाम कम्मं तं छन्विहं ॥ २९ ॥ कुदो ? छहि इंदिएहि अवगहिदअत्थविसयत्तादो। अणवगहिदे अत्थे ईहा किण्ण उप्पज्जदे ? ण, अवगहिदअत्थविसेसाकखणमोहे त्ति वयणेण सह विरोहावत्तीदो। छविहेहाणिमित्तपदुप्पायणटुमुत्तरसुत्तं भणदि-- चक्खिवियईहावरणीयं सोदिवियईहावरणीयं घाणिदियईहानिर्देश करके एकेन्द्रिय आदि किस जीवके किस इन्द्रियका कितना विषय है, इसका विस्तारके साथ निर्देश किया है । उनमें अन्य इन्द्रियोंका विषय तो सुगम है, मात्र संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके चक्षु इन्द्रियका विषय जो ४७२६३१. योजन बतलाया है उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- सूर्यको मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करने में ६० मुहर्त लगते हैं । तथा जब वह अभ्यंतर वीथी में होता है तब भरत क्षेत्रमें १८ मुहूर्तका दिन होता है । यतः उदयस्थानसे मध्यस्थान तक आने में सूर्यको नौ महूर्त लगते हैं, अतः सूर्यके चार क्षेत्र सम्बन्धी अभ्यन्तर वीथीकी परिधिमें ६० का भाग देकर ९ से गणा करनेपर चक्षु इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय पूर्वोक्तप्रमाण लब्ध होता है, क्योंकि, प्रातःकाल इतने दूर स्थित उदय होनेवाले सूर्यके दर्शन होते हैं। यहां अभ्यन्तर वीथीका व्यास ९९६४० योजन और इसकी परिधि १५०८९ योजन है, इतना विशेष जानना चाहिए ( देखिये जीवकाण्ड गाथा १६९ ) । अब यहां एकेन्द्रिय आदि जीवोंके किस इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय कितना है, यह कोष्टक देकर बतलाते हैं-- | रसना | घ्राण घ्राण । चक्षु । श्रोत्र ___ स्पर्शन | ४०० धनुष एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय ८०० । ६४ धनुष त्रीन्द्रिय १२८ , १०० धनुष x चतुरिन्द्रिय २५६ , २०० " | २९५४ योजन असंज्ञी पं. |६४०० , ५१२ । । ४०० , ५९०८ , ८००० धनुष - संज्ञी पं. । ९ योजन | ९ योजन | ९ योजन |४७२६३३. यो. १२ योजन जो ईहावरणीय कर्म है वह छह प्रकारका है ॥ २९ ।। क्योंकि, यह छह इन्द्रियोंके द्वारा अवगृहीत अर्थको विषय करता है। शंका-- अनवगृहीत अर्थमें ईहाज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता ? समाधान-- नहीं, क्योंकि ऐसा माननेपर ' अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थमें उसके विशेषको जाननेकी इच्छा होना ईहा है' इस वचनके साथ विरोध प्राप्त होता है । अब छह प्रकारकी ईहाके निमित्तका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं-- चक्षुइंद्रिय ईहावरणीय कर्म, श्रोत्रंद्रिय-ईहावरणीय कर्म, घ्राणेंद्रिय-ईहावरणीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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