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________________ ९०) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २९. होदि । ण अण्णत्थ णवणपडिसेहो एदेण कदो, अण्णत्थणवणणियमस्स पडिसेहाकरणादो। अधवा सव्वं पि किरियाकम्मं चदुसिरं चदुप्पहाणं होदि; अरहंतसिद्धसाहुधम्मे चेव पहाणभूदे कादूण सव्व किरियाकम्माणं पउत्ति-दसणादो । सामाइयत्योस्सामिदंडयाणं आदीए अवसाणे च मणवयणकायाणं विसुद्धिपरावत्तणवारा बारम हवंति । तेण ए गं किरियाकम्मं बारसावत्तमिदि भणिदं । एदं सव्वं पि किरियाकम्मं णाम । जं तं भावकम्मं णाम ।। २९ ॥ तस्स अत्थपरूवणं कस्सामोउवजुत्तो पाहुडजाणगो तं सव्वं भावकम्म णाम ॥ ३० ।। कम्मपाहुडजाणओ होदूण जो उवजुत्तो सो भावकम्मं णाम । एदेसि कम्णाणं केण कम्मेण पयदं ? समोदाणकम्मेण पयदं ॥ ३१॥ कुदो? कम्माणुयोगद्दारम्मि समोदाणकम्मस्सेव वित्थरेण परविदत्तादो। अधवा संगहं पडुच्च एवं भणिदं । मूलतंते पुण पयोगकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्झ-इरियावथकम्मतवोकम्म-किरियाकम्माणि पहाणं; तत्थ वित्थारेण परविदत्तादो। नहीं किया गया है, क्योंकि, शास्त्रमें अन्यत्र नमन करनेके नियमका कोई प्रतिषेध नहीं है। अथवा सभी क्रियाकर्म चतुःशिर अर्थात् चतुःप्रधान होता है, क्योंकि, अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्मको प्रधान करके सब क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति देखी जाती है । सामायिक और स्थोस्सामि दण्डकके आदि और अन्तमें मन, वचन और कायकी विशुद्धिके परावर्तनके वार बारह होते हैं, इस लिये एक क्रियाकर्म बारह आवर्तसे युक्त कहा है । यह सब ही क्रियाकर्म है । अब भावकर्मका अधिकार है ॥ २९ ॥ इसके अर्थका प्ररूपण करते हैंजो उपयुक्त प्राभूतका ज्ञाता है वह सब भावकर्म है ॥ ३०॥ कर्मप्राभृतका ज्ञाता होकर जो उपयुक्त है वह भाव कर्म है । विशेषार्थ- सूत्रमें आगम भावकर्मका लक्षण कहा है। इसका दूसरा भेद नोआगम भावकर्म है । प्रकृतमें भावकर्मके प्रथम भेद आगम भावकर्मका ही सूत्र में निर्देश है । इन कर्मोंका किस कर्मसे प्रयोजन है ? समवदान कर्मसे प्रयोजन है ॥३१॥ क्योंकि कर्म अनुयोगद्वारमें समवदान कर्मका ही बिस्तारसे कथन किया है । अथवा संग्रह नयकी अपेक्षा ऐसा कहा है । मूल ग्रन्थ में तो प्रयोकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तप.कर्म और क्रियाकर्म प्रधान हैं, क्योंकि, वहां इनका विस्तारसे कथन किया है। ॐ ष. खं. पु. ९, पृ. १८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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