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________________ ८२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं ( ५, ४, २६. जह चिरसंचियमिंधणमणलो पवणुग्गदो धुवं दहइ । तह कम्मिधणममियं खणेण झाणाणलो दहइ । ६५ ।। जह रोगासयसमणं विसोसणविरेयणोसहविहीहि ।। तह कम्मासयसमणं ज्झाणाणसणादिजोगेहि ।। ६६ ।। संपहि सुक्कज्झाणस्स लिंगपरूवणा कीरदे-असंमोह विवेगविसग्गादओ सुक्कज्झालिंगाणि । एत्थ गाहाओ अभयासंमोहविवेगविसग्गा तस्स होंति लिंगाई । लिंगिज्जइ जेहि मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो ।। ६७ ।। चालिज्जइ वीहेइ व धीरो ण परिस्सहोवसग्गेहि । सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देव मायासु ।। ६८।। देहविचित्तं पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्यसंजोए । देहोवहिवोसग्गं णिस्संगो सव्वदो कुणदि ।। ६९ ।। ण कसायसमुत्थेहि वि बाहिज्जइ माणसेहि दुखेहि । ईसाविसायसोगादिएहि ज्झाणोवगयचित्तो॥७० ।। सीयायवादिएहि मि सारीरेहि बहुप्पयारेहिं । णो बाहिज्जइ साहू ज्झयम्मि सुणिच्चलो संतो ।। ७१ ।। जिस प्रकार चिरकालसे संचित हुए ईधनको वायुसे वृद्धिको प्राप्त हुई अग्नि अतिशीघ्र जला देती है, उसी प्रकार अपरिमित कर्मरूपी इंधनको ध्यानरूपी अग्नि क्षणमात्र में जला देती है।। ६५ ।। जिस प्रकार विशोषण, विरेचन और औषधके विधानसे रोगाशयका शमन होता है,उसी प्रकार ध्यान और अनशन आदि निमित्तसे कर्माशयका भी शमन होता है ।। ६६ ।। अब शुक्लध्यानकी पहिचानका निर्देश करते है-असंमोह, विवेक और विसर्ग अर्थात् त्याग आदि शुक्लध्यानके लिंग हैं। इस विषयमें गाथायें __ अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यानके लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यानको प्राप्त हुआ चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है ॥ ६७ ।। वह धीर परोषह और उपसर्गोंसे न तो चलायमान होता है और न डरता है । तथा वह सूक्ष्म भावोंमे और देवमायामें भी नहीं मुग्ध होता है । ६८ ।। वह देहको अपनेसे भिन्न अनुभव करता है। इसी प्रकार सब प्रकारके संयोगोंसे अपनी आत्माको भी भिन्न अनुभव करता है । तथा निःसंग हुआ वह सब प्रकारसे देह और उपधिका उत्सर्ग करता है ।। ६९॥ ध्यान में अपने चित्तको लीन करनेवाला वह कषायोंसे उत्पन्न हुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिक दुःखोंसे भी नहीं बाधा जाता है ॥ ७० ॥ ध्येयमें निश्चल हुआ वह साधु शीत व आतप आदिक बहुत प्रकारकी शारीरिक बाधाओंके द्वारा भी नहीं बाधा जाता है ।। ७१ ॥ ति. प. ९,१८. ॐ प्रतिषु — समुत्तेहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001812
Book TitleShatkhandagama Pustak 13
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1993
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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