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________________ दीपक की लौ एवं इन्द्रियाँ सभी सम्मोहित हैं। उन्हें सम्मोहनमुक्त करने की आवश्यकता है। हमें सीखना चाहिए कि किस तरह चुपचाप खड़े होकर देख सकें। यह कार्य सुगम नहीं है। ज़रा पीछे खड़े होकर द्रष्टा बनिए। निरपेक्ष भाव से, मगर पैनी दृष्टि से गौर किए बगैर हम पहचान नहीं सकते कि मन, शरीर एवं इन्द्रियाँ किन किन तरीकों से सम्मोहित हो रहे हैं। यह कार्य इतना कठिन क्यों है? क्योंकि यह जन सम्मोहन है। समाज दो तरीके से प्रभावित करता है - जन मूल्यों से एवं आँकड़ों से। जब जन समुदाय कोई कार्य करता है, तो व्यक्ति पर उसका सम्मोहात्मक प्रभाव होता है। उदाहरणार्थ अगर दस व्यक्ति नाच रहें हैं और उसी कक्ष में आप एक कोने में अलग से खड़े हैं, तो यदि आपका नाचने का इरादा नहीं है, फिर भी आपकी इच्छा होगी कि आप भी नाचने लगें। अगर किसी कक्ष में दस व्यक्ति ध्यान कर रहें हैं और आप उसी कक्ष में नाचने के इरादे से आते हैं, तो आप नाच नहीं सकेंगे। व्यक्ति भले ही दृढ़ हो, फिर भी अधिकांश बातों में सामाजिक प्रभाव ज़्यादा सशक्त होता है। इस तरह जन मूल्य एवं रीति-रिवाज बहुमत द्वारा बनाए जाते हैं और अल्पमत को प्रभावित करते हैं। ये भावनाएँ उन साधकों के लिए हैं जो भिन्न-भिन्न जीवन प्रणालियों से आए हैं, जिनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक परिप्रेक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं। उन्होंने स्वयं को अभी तक जन सम्मोहन की मूर्छा से मुक्त नहीं किया है। ये चिंतन उन्हें इसी मुर्छा से मुक्त करने के लिए हैं। इस शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य मानव की चेतना को मुक्त करना है। छठी भावना में हम दो तत्त्वों के बीच का अंतर करेंगे - शुचि, जो ऊर्ध्व-गत्यात्मक है और अशुचि जो अधो-गत्यात्मक है। हम अपने अंदर बसी इन दोनों प्रक्रियाओं पर चिंतन करें। दीपक की तरह हमारे अंदर कुछ है जो निरंतर ऊपर की तरफ बढ़ता जा रहा है। हम उसे ज्योत कह सकते हैं। हमारे अंदर कुछ और भी है जो नीचे पिघलता जा रहा है। वह मोम है। इन दोनों का अपना अलग स्वभाव है। ___ऊपर क्या जा रहा है? वह हमारी चाह है - कुछ शुद्ध एवं सुंदर, कुछ ऊँचा एवं कुलीन, कुछ सूक्ष्म एवं दिव्य को पाने की। हममें से प्रत्येक को इसकी तलाश है। इसीलिए हमें साधक कहा गया है, जिसका अर्थ है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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