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________________ जीवन का उत्कर्ष कहते हैं, 'उस पुरुष ने मेरा जीवन बरबाद किया' या 'उस स्त्री ने मेरा जीना दूभर कर दिया।' आपके जीवन को बरबाद किया है आपकी खुद की सोच एवं विचार-धारा ने, किसी और ने नहीं । ५८ अन्यत्व पर चिंतन करने के लिए अपने शरीर से शुरू करें और कहें, 'यह शरीर मुझसे अलग है । शरीर अन्य है। मैं स्व अर्थात् आत्मा हूँ।' दोनों को एक मत समझें । उनमें जो अंतर है, उसे पहचानिए । जब आप उन्हें एक समझना छोड़ देंगे, तब आप जान पाएँगे कि सहचारिता क्या होती है। तब आप जानेंगे कि 'जो जीवंत है, चेतन है, निराकार है, वह सतत चलायमान ऊर्जा है, वह मैं स्वयं हूँ। जिसका संघटन एवं क्षय होता है, वह अचेतन ऊर्जा है। वह शरीर है।' सचेतन ऊर्जा का संघटन या संगठन या विघटन नहीं होता, मगर अचेतन ऊर्जा प्रत्येक क्षण संघटन एवं क्षय से गुज़रती रहती है। हमारा शरीर एक कोशाणु से गठित हुआ है। कोशाणुओं के विभाजन की प्रक्रिया से शरीर की रचना होती है एक से दो, दो से चार, चार से आठ, और आगे ऐसे ही । हमारे शरीर का वज़न दिन प्रतिदिन बढ़ता रहता है। एक कोशाणु के गुणन, संघटन एवं क्षय से आठ या नौ पाउण्ड का वज़न बनता है। एक पल के लिए भी यह प्रक्रिया रुकती नहीं है । यह हमारे जीवन के अंतिम क्षण तक चलती रहती है। जब हम इस पर ध्यान करेंगे, तो हम इस प्रक्रिया को उसकी समग्रता में देख सकते हैं। किसी भी समय में, जिसका संघटन हुआ है, उसका क्षय होता है । यह कोई नई खोज नहीं है। इसमें स्तंभित होने का कोई कारण नहीं है। जब आप इसे समझ जाएँगे, तब आप किसी भी बात से विस्मित नहीं होंगे। अनजान ही अभिभूत करता है, लेकिन जिसे आप जानते हैं, वह एक तथ्य है, एक कथन है। आप उसे स्वीकार करते हैं। ध्यान के द्वारा संघटन एवं क्षय की इस प्रक्रिया से स्वयं को अलग करके, अब आप पूछते हैं, 'कौन इस प्रक्रिया को परिचालित करता है ? इस प्रक्रिया से परे कौन है?' आपका उत्तर होगा, 'वह मैं हूँ।' 'मैं' इसके मध्य में केन्द्रित है। इसे अपना अनुभव बनाइए, दिन के उजाले की तरह द्युतिमान | तत्पश्चात् आप जान लेंगे कि आपको एक आध्यात्मिक झलक की अनुभूति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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