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________________ अनित्य के भीतर है नित्य १५ उस वास्तविक 'मैं' को स्वयं में नहीं देख सकते, तो आप उसे और किसी में नहीं देख सकेंगे। . उसे जानने के लिए समय निकालने का तात्पर्य यह नहीं है कि आप स्वार्थी हैं। उसका तात्पर्य है कि आप सर्वप्रथम स्वयं पर सत्य का प्रयोग करने के लिए तैयार हैं। फिर आप सभी के साथ उसे बाँट पाएँगे। किसी व्यक्ति को कोई गरम वस्तु देने से पहले, क्या आप पहले अपनी त्वचा पर उसकी परीक्षा नहीं करते हैं? उसी तरह, किसी दूसरे को सत्य देने से पहले, आप स्वयं उसकी अनुभूति करें। ध्यान की इस रोशनी में स्वयं की वास्तविकता को समझें। बाहरी आवरणों को फेंक दें और आंतरिक सत्य को जानें। देखिए कि किस तरह आपने अब तक अपने चारों ओर एक कक्ष बना रखा था। अब आप जानना चाहते हैं कि अंदर क्या है। यदि आप स्वयं के सत्य के पास नहीं जाएँगे, तो आपका सारा जीवन ढकोसलों और सपनों के अलावा कुछ नहीं होगा। ऐसे सपनों में जीकर आप अपने उत्कर्ष के अंतिम सोपान तक नहीं पहुँच पाएँगे। इसलिए अगर आप आगे जाना चाहते हैं, तो खरे बनिए। शब्दों से परे जाइए और अनुभूति के सत्य तक आइए। देखिए कि भले ही प्रतीत हो मानो परिवर्तन के साथ 'मैं' भी परिवर्तित हो रहा है, वास्तव में वह अपरिवर्तनशील है। जब लोग आपसे विदा होते हैं, या आप उनसे दूर जाते हैं, तब इस ज्ञान के साथ देखिए कि आप दोनों के अंदर कुछ तो है जो रहेगा, कुछ तो है जो फिर से मिलेगा। जैसे समझ गहरी होती जाती है, रिश्ते गहन बनने लगते हैं। ये सिर्फ शरीर के नहीं हैं, मगर सत्व से सुगंधित हैं। अन्यथा, जीवन इतने भय और चिंताओं से घिरा हुआ है कि सहन करना मुश्किल है। अगर आप जान जाएँगे कि सत्व कभी नहीं खो सकता, आप अपने प्रियजन के विरह पर उदास होते हुए भी अपने काम में फिर से लग जाएँगे, अपनी दिनचर्या जारी रखेंगे और जीवन को पूरी तरह जिएँगे। यद्यपि लुप्त होने का आभास है, यह लुप्तता इसीलिए है ताकि और कहीं प्रकट हो सके। वहाँ आने के लिए आपको यहाँ से जाना होगा। सही रिश्तों में एक व्यक्ति दूसरे से आगे चला जाता है। दूसरा व्य िक उसके पीछे चलता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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