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________________ १४२ जीवन का उत्कर्ष बने। अरबों रुपये, नाम और ख्याति, इन सबका क्या लाभ हुआ? क्या इसी को उपलब्धि कहें? पर मन यह बात समझने के लिए तैयार नहीं है। मन हमेशा आपको दु:खी बनाता रहता है, और ऐसे विचार देता है कि आपने कुछ भी प्राप्त नहीं किया है। वह आपका उपहास करता है। इस आंतरिक उपहास के कारण आप दुःखी रहते हैं। अपने समय में आप चाहे जो कर लें, जब यह विचार मन में उठता है कि 'मैंने क्या हासिल किया? ', सब कुछ व्यर्थ लगता है। आपने जो भी अच्छे काम किए हों, उन सभी को मन नकार देता है। वह आपकी तुलना कभी इस व्यक्ति से और कभी किसी और से करता रहता है । और यह विफलता आपको काटने लगती है, दुःखी बनाने लगती है, आप पर बोझ बन जाती है। आप इतने बोझिल हो जाते हैं कि अब आपको जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। इस संसार में कहीं न कहीं ऐसा कोई व्यक्ति होगा ही जिसके हासिल पास आपसे ज़्यादा है, जिसने आपसे ज्यादा हासिल किया है। इसलिए गुरु नवदीक्षित से कहते हैं, 'तुम्हारी उपलब्धि है बोधिदुर्लभ । तुम्हारी उपलब्धि है चिरस्थायी और क्षणभंगुर में अंतर जानना, बाहरी पोशाक के अंदर छिपी दौलत को जानना ।' सही या गलत कुछ नहीं होता है, केवल वास्तविक और अवास्तविक होता है। ये दोनों भी उलझ गए हैं। इसके लिए किसी को दोषी ठहराना बेकार है। केवल यह देखना ज़रूरी है कि किस तरह बाहरी प्रभाव और अज्ञान ने मिलकर इन दोनों की पहचान मिटा दी है। यह बोध इस उलझन पर प्रकाश डालता है। एक बार सत्य और असत्य दोनों नदी में नहाने गए। गरमी के दिन थे, इसलिए कपड़े उतारकर दोनों नदी में कूद पड़े। वे मजे से तैर रहे थे कि असत्य को एक विचार आया । वह नदी से पहले बाहर निकल आया और उसने सत्य के कपड़े पहन लिए । जब सत्य बाहर आया, तो उसने देखा कि उसके कपड़े तो गायब हैं, उसने अपने आप से कहा, 'समाज में नंगा घूमना ठीक नहीं होगा, इसलिए मैं असत्य के ये कपड़े पहन लेता हूँ।' उस दिन से दोनों समाज में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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