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________________ १०६ जीवन का उत्कर्ष जागरूकता से, आंतरिक संतुलन से पल्लवित होता है। अहंकार बाह्य परिस्थिति पर निर्भर करता है; आत्म-सम्मान हर परिस्थिति में स्थिर रहता है। अहम् तापमापी के पारे के समान है, उष्णता के अनुरूप ऊपर और नीचे होता रहता है। आत्म-सम्मान का अपना ही एक संतुलन है, बाहरी मौसम उसपर कोई असर नहीं कर सकता । साधक वही है जो संतुलन बनाए रख पाता है। तीसरा आंतरिक शत्रु है लोभ । जब लोभ हम पर नियंत्रण पा लेता है, तो हमारी आवश्यकताएँ बढ़ती जाती हैं। हम अपना रहन-सहन निरंतर बदलने लगते हैं। लोभ जीवन को नष्ट कर देता है और इससे जो अंदरूनी पीड़ा होती है, उसे कोई भी औषधि शांत नहीं कर सकती। कई लोग जिन्हें राजनीति, व्यवसाय या धार्मिक पद के शिखर पर पहुँचने के बाद सेवानिवृत्त होकर सामान्य जीवन बिताना पड़ता है, उन्हें इतनी पीड़ा होती है कि वे अंदर से टूट जाते हैं। अतीत में उनका जीवन वैभवपूर्ण था, मगर जब उनकी परिस्थितियाँ मौसम के समान बदलने लगी और उनके अहम् की माँगें पूरी न हो सकी, तब उन्हें कुंठा का सामना करना पड़ा। उनके लिए यह एक मानसिक यातना है। ये लोग तभी बच पाते हैं जब किसी रुचिकर कार्य में इनका दिल लग जाए। लोभ को खत्म करने का अर्थ यह नहीं है कि आप आजीविका कमाना ही छोड़ दें। इसका तात्पर्य है अपने आपसे यह सवाल पूछना, 'क्या मैं किसी और से अपनी तुलना कर रहा हूँ, या जो कुछ मेरे पास है, उसी से खुश हूँ?” लोभ एक प्रचंड भूकंप के समान है। यह जीवन को तहस-नहस कर सकता है। इसलिए आप विराम चिह्न की कला आजमाकर कह दें, 'बस, बहुत हो गया !' जब आपके अंदर क्रोध, अहंकार और लोभ हो, तो चौथे शत्रु का आगमन होता है - माया माया यानी कपट, धोखा । प्रथम तीन को बनाए रखने के लिए आपको इसका सहारा लेना पड़ता है। आपको वह होने का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001806
Book TitleJivan ka Utkarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChitrabhanu
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, Principle, & Religion
File Size11 MB
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