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________________ - प्रथम अध्याय [१७ २-भवानुगामी, और ३-उभयानुगामी। अननुगामी- जो अवधिज्ञान साथ नहीं जावे उसे अननुगामी कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-१-क्षेत्राननुगामी, २-भवाननुगामी और ३उभयाननुगामी। वर्द्धमान- जो शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी कलाओंकी तरह बढ़ता रहे उसे वर्द्धमान कहते हैं। हीयमान- जो कृष्णपक्षके चन्द्रमाकी कलाओंकी तरह घटता रहे उसे हीयमान कहते हैं। अवस्थित- जो अवधिज्ञान एक रहे न घटे न बढ़े उसे अवस्थित कहते हैं। जैसे सूर्य अथवा तिल आदिके चिह्न। अनवस्थित- जो हवासे प्रेरित जलकी तरङ्गकी तरह घटता बढ़ता रहे-एकसा न रहे उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं ॥२२॥ दूसरे ग्रन्थोंमें अवधिज्ञानके नीचे लिखे हुए तीन भेद भी बतलाये हैं। १-देशावधि, २-परमावधि, ३-सर्वावधि। इनमें देशावधि चारों गतियोंमें हो सकता है परन्तु परमावधि और सर्वावधि चरम शरीरी मुनियोंको ही होता है। इनका स्वरूप और विषय अन्य ग्रन्थोंसे जानना चाहिये। मन:पर्यय ज्ञानके भेदऋजुविपुलमती मनःपर्ययः ॥२३॥ अर्थ-(मनःपर्ययः) मनः पर्ययज्ञान (ऋजुविपुलमती) ऋजुमति और विपुलमतिके भेदसे दो प्रकारका है। ऋजुमति- जोमन, वचन, कायकी सरलतासे चिंतित दूसरेके मनमें स्थित रूपी पदार्थको जाने, उसे ऋजुमती मनः पर्ययज्ञान कहते है। विपुलमति- जो सरल तथा कुटिलरूपसे चिंतित परके मनमें स्थित रूपी पदार्थको जाने उसे विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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