SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शंका समाधान [१९९ त्रेसठ प्रकारके मतोंका निरूपण करके उनका निग्रह किया गया है। इस अंगके पांच भेद है- परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चुलिका। परिकर्मके पांच भेद है- चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। चन्द्रप्रज्ञप्तिमें चन्द्रमाकी आयु, अवगाहना और उसके परिवार आदिका विस्तृत विवेचन है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें जम्बूद्वीपमें रहनेवाले मनुष्य आदिका तथा कु लाचल, नदी और तालाब आदिका विस्तृत वर्णन है। द्वीपसागरप्रज्ञप्तिमें सब द्वीपों और समुद्रोंका तथा उनकी अवान्तर रचना आदिका वर्णन है। व्याख्याप्रज्ञप्तिमें रूपी अरूपी द्रव्योंका और भव्य तथा अभव्यादिका वर्णन है। द्दष्टिवादका जो दूसरा भेद सूत्र है उसमें आत्मा अबन्धक है अभेदक है तथा त्रैराशिक नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरूषवादका वर्णन है। द्दष्टिवादके तीसरे भेद प्रथमानुयोगमें शलाका पुरूषों व पुण्य पुरूषोंके चरित्रका वर्णन है। दृष्टिवादके चौथे भेद पूर्वगतके चौदह भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुप्रवाद, कल्याण प्राणावाय, क्रियाविशाल, और लोकबिन्दुसार। इनमेंसे उत्पाद पूर्वमें सब द्रव्योके उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप अवस्थाओंका विचार किया है। अग्रायणीय पूर्वमें सब अङ्गोंके प्रधानभूत विषयका वर्णन है। वीर्यानुवादमें आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य और क्षेत्रवीर्य आदिका वर्णन है। अस्तिनास्तिप्रवादमें अस्तित्व और नास्तित्वको प्रमुखतासे जीवादि पदार्थोका वर्णन है। ज्ञानप्रवादमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञानोका वर्णन है। सत्यप्रवादमें वचनगुप्ति, वचनके संस्कारके कारण उसके प्रयोग और बारह प्रकारकी भाषा आदिका कथन है। आत्मप्रवादमें आत्मा ज्ञाता है, विष्णु है, भोक्ता है इत्यादि रूपसे विस्तारके साथ आत्मतत्वका विवेचन किया है। कर्मप्रवादमें आठ प्रकारके कर्मोका वर्णन है। प्रत्याख्यान पूर्वमे सब प्रकारके प्रामाख्यानका, उपासकोकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy