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________________ नवम अध्याय [१६७ आभ्यन्तर तपप्रायश्चितविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्ग ध्यानान्युत्तरम् ॥२०॥ अर्थ- १-प्रायश्चित ( प्रमाद अथवा अज्ञानसे लगे हुये दोषोंकी शुद्धि करना), २-विनय (पूज्य पुरुषोंका आदर करना) ३-वैयावृत्य (शरीर तथा अन्य वस्तुओंसे मुनियोंकी सेवा करना) ४-स्वाध्याय (ज्ञानकी भावनामें आलस्य नहीं करना), ५-व्युत्सर्ग (बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहका त्याग करना) और ६-ध्यान (चित्तकी चंचलताको रोककर उसे किसी एक पदार्थके चिन्तवनमें लगाना) ये आभ्यन्तर तप हैं। इन तपोंका आत्मासे घनिष्ट सम्बन्ध है इसलिये उन्हें आभ्यन्तर तप कहते हैं ॥२०॥ आभ्यन्तर तपोंके उत्तरभेदनवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमं प्रारध्यानात्२१ अर्थ- ध्यानसे पहलेके पांच तप क्रमसे ९, ४, १०, ५ और २ भेदवाले हैं॥२१॥ प्रायश्चितके ' नव भेदआलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्ग तपच्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥२२॥ अर्थ- १-आलोचना (प्रमादके वशसे लगे हुये दोषोंको गुरू के पास जाकर निष्कपट रीतिसे कहना), २-प्रतिक्रमण ( मेरे द्वारा किये हुए अपराधमिथ्या हों ऐसा कहना),३-तदुभय(आलोचना और प्रतिक्रमण 1. प्रायः = अपराध, चित्त = शुद्धि, अपराधको शुद्धि करना प्रायश्चित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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